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चक्रदत्तः।
[ ज्वरा
फट गयी हो, तो मुखमें घी लगाकर पिसी हुई मुनक्का शहदमें |
कुलत्थादिलेपः। मिलाकर लगाना चाहिये ॥ १८८ ॥
.. कुलत्थकट्फले शुण्ठी कारवी च समांशकैः । निद्रानाशचिकित्सा।
सुखोष्णैर्लेपनं कार्य कर्णमूले मुहुर्मुहुः ॥ १९४॥ काकजंघाजटा निद्रां जनयेच्छिरसि स्थिता १८९॥ कुलथी, कायफल, सोंठ, काला जीरा समान भाग ले, पानकि काकजंघाकी जड़ महीन पीस शिरमें लेप करनेसे निद्राको | साथ महीन पीस, गरम कर गुनगुना गुनगुना लेप करना उत्पन्न करती है ॥ १८९ ॥
चाहिये ॥ १९४ ॥ सन्निपाते विशेषव्यवस्था।
जीर्णज्वरचिकित्सा। सन्निपाते प्रकम्पन्तं प्रलपन्तं न बृहयेत् ।
निदिग्धिकानागरकामृतानां तृष्णादाहाभिभूतेऽपि न दद्याच्छीतलं जलम् १९० कार्थ पिबेन्मिश्रितपिप्पलीकम् ।
सन्निपातमें कम्पनेवाले तथा प्रलाप करनेवालेकी भी बृहण | जीर्णज्वरारोचककासशूलचिकित्सा न करनी चाहिये । और प्यास तथा दाहसे व्याकुल श्वासानिमान्द्यार्दितपीनसेषु ॥ १९५ ॥ होनेपर भी ठण्डा जल न देना चाहिये ॥१९॥
छोटी कटेरी, सोंठ तथा गुर्चका क्वाथ छोटी पीपलका चूर्ण
|मिलाकर, जीर्णज्वर, अरुचि, कास, शूल, श्वास, अग्निमांद्य, कर्णमूललक्षणम् ।
अर्दित तथा पीनस रोगमें पीना चाहिये ॥ १९५॥ सन्निपातज्वरस्यान्ते कर्णमूले सुदारुणः ।
अस्य समयः। शोथः संजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते ॥ १९१ ॥ सन्निपातज्वरके अन्तमें कानके नीचे कठिन सूजन हो जाती हन्त्यूर्ध्वगामयं प्रायः सायं तेनोपयुज्यते । है, इससे कोई ही बचता है ॥ १९१ ॥
अधिकतर ऊर्ध्वगामी रोगोंको यह क्वाथ नष्ट करता है, अतः
इसका सायंकाल प्रयोग किया जाता है। तचिकित्सा।
गुडूचीक्वाथः । रक्तावसेचनैः पूर्व सर्पिष्पानश्च तं जयेत् ।। प्रदेहैः कफपित्तनैर्वमनैः कवलग्रहः ।। १९२ ॥
| पिप्पलीचूर्णसंयुक्तः काथश्छिन्नरुहोद्भवः ॥ १९६॥ | जीर्णज्वरकफध्वंसी पञ्चमूलीकृतोऽथवा ।
। उसे पहिले घृत पिलाकर रक्त निकलवाना ( जोंक या शिरा
गुर्चका क्वाथ, छोटी पीपलका चूर्ण मिला, अथवा लघुपञ्चव्यध द्वारा) चाहिये । तथा कफपित्तनाशक लेप व कवलग्रह | अथवा वमन कराकर कर्णमूल शांत करना चाहिये ॥ १९२ ॥ मू
'मूलका क्वाथ पिप्पली चूर्ण मिला, जीर्णज्वर तथा कफको नष्ट
| करता है ॥ १९६ ॥..गैरिकादिलेपः ।
गुडपिप्पलीगुणाः। गैरिकं पांशुजं शुण्ठी वचाकटुककाजिकैः ।
कासाजी'रुचिश्वासहृत्पाण्डुक्रिमिरोगनुत् ॥१९७ कर्णशोथहरो लेपः सन्निपातज्वरे भृशम् ॥१९३ ॥
जीर्णज्वरेऽग्निमान्ये च शस्यते गुडपिप्पली । गेरू, खारी नमक, सोंठ, बच दूधिया और कुटकीको महीन | पीस काजीके साथ सन्निपातज्वरमें कर्णमूलमें लेप करना।
| गुड़के सहित छोटी पीपल का चूर्ण कास, अजीर्ण, अरुचि,
श्वास, हृद्रोग, पाण्डुरोग, क्रिमिरोग, जीर्णज्वर तथा अग्निमाचाहिये ॥ १९३॥
न्यको नष्ट करता है ॥ १९७ ॥१यहो पर 'अन्त' शब्दका समीप अर्थ भी करते हैं, अतः यह
विषमज्वरचिकित्सा। अर्थ हो जाता है कि संन्निपातज्वरके समीपमें ( अर्थात् पहिले
कलिङ्गकाः पटोलस्य पत्रं कटुकरोहिणी ॥ १९८॥ या अन्तमें या मध्यमें ) कठिन शोथ कर्णमूलमें हो जाता है,
पटोलं शारिवा मुस्तं पाठा कटुकरोहिणी । इससे कोई ही बचता है अर्थात् यह कष्टसाध्य होता है । अतएव
निम्बं पटोलं त्रिफला मृद्वीका मुस्तवत्सको ॥१९९॥ कुछ आचार्योंने लिखा है “ ज्वरस्य पूर्व ज्वरमव्यतो वा ज्वरान्ततो वा श्रुतिमूलशोथः । क्रमेण साध्यः खलु कष्टसाध्यस्ततस्त्व
किराततिक्तममृता चन्दनं विश्वभेषजम् । साध्यः कथितो भिषग्भिः ॥" इसीको पाठभेदसे “क्रमादसाध्यः। गुडूच्यामलकं मुस्तमर्धश्लोकसमापनाः.॥ २० ॥ खलु कष्टसाध्यस्ततस्तु साध्यः कथितो मुनीन्द्रः" लिखा है। यह कषायाः शमयन्त्याशु पञ्च पञ्चविधान ज्वरान् । रोगविज्ञानका विषय है, अतः वहींसे निर्णय करना चाहिये ।। सन्ततं सततान्येशुस्तृतीयकचतुर्थकान् ॥२०१॥