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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(१७)
दोनों कटेरी, पुष्करमूल, भारंगी, कचूर, काकड़ासिंही, मिलाकर पीनेसे अभिन्यासज्वर, अफारा तथा दर्दको नष्ट यवासा, इंद्रयव, परवलके पत्ते, कुटकी-यह "बृहत्यादिक्काथ" करता है ॥ १८३ ॥ सन्निपातज्वर तथा उपद्रवसहित समस्त कासोंको नष्ट |
अभिन्यासलक्षणम् । करता है ॥ १७६ ॥ १७७ ॥
निद्रोपेतमभिन्यासं क्षीणं विद्याद्धतौजसम् ।
जिस सनिपातज्वरमें निद्रा अधिक हो, रोगी क्षीण हो, उसे भाङ्गादिक्वाथः।
'हतौजस' या 'आभिन्यास' कहते हैं। जैसा कि-भगवान् सुश्रतने भाी पुष्करमूलं च रास्त्रां बिल्वं यवानिकाम् । लिखा है-“ अभिन्यासं तु तं प्राहुर्हतोजसमथापरे । सन्निपातनागरं दशमूलं च पिप्पलीं चाप्सु साधयेत् १७८॥ ज्वरं कृच्छ्रमसाध्यमपरे जगुः । सन्निपातज्वरे देयं हृत्पार्धानाहशूलिनाम् ।
कण्ठरोगादिचिकित्सा । कासश्वासाग्निमन्दत्वं तन्द्रां च विनियच्छति १७९ भारणी, पोहकरमूल, रासन, बेलकी छाल, अजवायन, सोंठ,
___ कण्ठरोधकफश्वासहिक्कासंन्यासपीडितः । दशमूल तथा छोटी पीपलका काथ सन्निपातज्वर, हृदय तथा
मातुलुङ्गाकरसं दशमूल्यम्भसा पिबेत् ॥१५४॥ पसलियों के दर्द, अफारा, कास, श्वास, अग्निमंदता तथा तंद्राको
कण्ठावरोध, कफ, श्वास, हिक्का तथा अभिन्यास ज्वरसे नष्ट करता है ॥ १७८ ॥ १७९ ॥
पीड़ित मनुष्यको दशमूलके काढ़ेके साथ बिजीरे निंबू तथा अद
रखका रस पिलाना चाहिये ॥ १८४ ॥ द्विपञ्चमूल्यादिकार्थः।
व्योषादिक्वाथः।। द्विपञ्चमूलीषड्ग्रन्थाविश्वगृध्रनखीद्वयात् ।
व्योषाब्दत्रिफलातिक्तापटोलारिष्टवासकैः । कफवातहरः क्वाथः सन्निपातहरः परः ॥ १८० ॥ सभूनिम्बामृतायासैत्रिदोषज्वरनुज्जलम् ॥ १८५ ॥ दशमूल, बच, सोंठ, नख, नखांसे बनाया गया क्वाथ |
सोंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, नागरमोथा, त्रिफला, कफ, वात तथा सन्निपातको नष्ट करता है ॥ १८० ॥
कुटकी, परवलकी पत्ती, नीमकी छाल, रुसाहके फूल या अभिन्यासचिकित्सा (कारव्यादिकषायः।) छाल, चिरायता, गुर्च, तथा यवासा-इनसे बनाया हुआ क्वाथ कारवीपुष्कररण्डत्रायन्तीनागरामृताः। त्रिदोषज्वरको नष्ट करता है ॥ १८५॥ दशमूलीशठीशृंगीयासभाङ्गीपुनर्नवाः ॥ १८१॥
त्रिवृतादिक्वाथः। तुल्या मूत्रेण निष्क्वाथ्य पीताः स्रोतोविशोधनाः। त्रिवृद्विशालात्रिफलाकटुकारग्वधैः कृतः ।
अभिन्यासं ज्वरं घोरमाशुनन्ति समुद्धतम् १८२॥ सक्षारो भेदनः क्वाथः पेयः सर्वज्वरापहः॥१८६॥ • काला जीरा, पोहकरमूल, एरण्डकी छाल, वायमाण, सोंठ, निसोथ, इन्द्रायनकी जड़, त्रिफला, कुटकी, अमलतासके गुर्च, दशमूल, कचूर, काकड़ासिंही, यवासा, भारङ्गी, पुन- गूदेसे बनाया गया काथ जवाखार मिलाकर पिलानेसे समस्त नवा--सब समान भाग ले गोमूत्रमें क्वाथ बनाकर पिलानेसे ज्वरोंको नष्ट करता है ॥ १८६ ॥ छिद्रोंको शुद्ध कर बढ़े हुए घोर अभिन्यासज्वरको शान्त
स्वेदबाहुल्यचिकित्सा । करता है ॥ १८१॥ १८२॥ .
स्वेदोद्गमे ज्वरे देयश्चूर्णो भृष्टकुलत्थजः ॥ १८७ ॥ मातुलुङ्गादिवाथः।
पसीनेके अधिक आनेपर कुलथी भून, महीन चूर्ण कर उरांना
चाहिये ॥ १८७ ॥ मातुलुङ्गाश्मभिद्विल्वव्याघ्रीपाठोरुवकजः । काथो लवणमूत्राढयोऽभिन्यासानाहशुलनुत्१८३॥
जिह्वादोषचिकित्सा। बिजीरे निंबूकी जड़, पाषाणभेद, बेलकी छाल, छोटी| घर्षेजिह्वां जडां सिन्धुत्र्यूषणैः साम्लवेतसः । कटेरी, पाली, एरण्डकी छालका क्वाथ गोमूत्र तथा सेंधानमक उच्छुकां स्फुटितां जिह्वां द्राक्षया मधुपिष्टया १८८
लेपयेत्सघृतं चास्यं सन्निपातात्मके ज्वरे । १“नखी पञ्चविधा ज्ञेया गंधार्थ गंधतत्परैः । काचि- जड़ जिह्वाको सेंधानमक, त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल) द्वदरपत्राभा तथोत्पलदला मता ॥ काचिदश्वखुराकारा गजकर्ण-तथा अम्लबेतके चूर्णसे घिसना चाहिये । यदि जिह्वा सख तथा समाऽपरा । वराहकर्णसंकाशा पञ्चमी परिकीर्तिता ॥” इस भांति | पांच प्रकारके नख होते हैं। इनमेंसे पूर्वके दो बदरपत्र तथा १ पसीना अधिक आनेपर उसे पोंछना न चाहिये, किन्त उत्पलपत्रका प्रयोग करना चाहिये । अथवा रक्त, श्वेतपुष्पभेदसे | यही चूर्ण उर्राते रहना चाहिये (एक रत्तीकी मात्रासे मंमेकी लेना चाहिये
भस्मका प्रयोग भी शीघ्र पसीना बन्द करता है)