________________
चक्रदत्तः। .
[वरी
-
-
-
-rowriwriwariya
लघुपञ्चमूल तथा किरातादि गणकी औषधिये चिरायता,
अपरोऽष्टादशाङ्गः। सोंठ, नागरमोथा, गुर्चको पित्तप्रधान त्रिदोषज्वरमें शहदके। साथ तथा कफप्रधानमें छोटी पीपलके चूर्णके साथ देना। भूनिम्बदारुदशमूलमहौषधाब्दचाहिये ॥ १६३॥
तिक्तेन्द्रबीजधानकेभकणाकषायः ।
तन्द्राप्रलापकसनारुचिदाहमोहदशमूलम् ।
श्वासादियुक्तमखिलं ज्वरमाशु हन्ति ॥ १७०॥ बिल्वश्योनाककाश्मर्यपाटलागणिकारिकाः। चिरायता, देवदारु, दशमूल, सोंठ, नागरमोथा, कुटकी, दीपनं कफवातघ्नं पञ्चमूलमिदं महत् ॥ १६४॥ इन्द्रयव, धनियां, और गजपीपल इनका क्वाथ, तन्द्रा, प्रलाप, शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरंम् । कास, अरुचि, दाह, मोह, तथा श्वासादियुक्त समस्त ज्वरोंको नष्ट वातपित्तहरं वृष्यं कनीयः पञ्चमूलकम् ॥६५॥ करता है ॥ १७॥ उभयं दशमूलं तु सन्निपातज्वरापहम् ।
मुस्तादिक्वाथः। कासे श्वासे च तन्द्रायां पार्श्वशूले च शस्यते ॥ पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं कण्ठहृद्ग्रहनाशनम् ॥ १६६ ॥
मुस्तपर्पटकोशीरदेवदारुमहौषधम् । बेलकी जड़की छाल, सोनापाठा, खम्भार, पाढ़ल, अरणी
त्रिफला धन्वयासश्च नीली कम्पिल्लकं त्रिवृत् ॥ इसे “ महत्पञ्चमूल" कहते हैं । यह अग्निको दीप्त करनेवाला
किरातातिक्तकं पाठा बला कटुकरोहिणी। तथा कफवायुको नष्ट करनेवाला है । सरिवन, पिठिवन, छोटी मधुकं पिप्पलीमूलं मुस्ताद्यो गण उच्यते १७२।। कटेरी, बड़ी कटेरी तथा गोखुरू यह "लघुपञ्चमूल " वातपि- अष्टादशाङ्गमुदितमेतद्वा सन्निपातनुत् । त्तको नष्ट करनेबाला तथा वाजीकर है। दोनों मिलकर 'दश- पित्तोत्तरे सन्निपाते हितं चोक्तं मनीषिभिः । मूल ' कहा जाता है। यह खांसी, श्वास, तन्द्रा तथा पार्श्वशू
मन्यास्तम्भ उरोघाते उरःपार्श्वशिरोगहे १७३ ।। लमें विशेष लाभ करता है। सान्निपातज्वरको नष्ट करता है। छोटी पीपलके चूर्णके साथ कण्ठ तथा हृदयकी जकड़ाहटको
नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खश, देवदारु, सोंठ
त्रिफला, यवासा, नील कबीला, निसोथ, चिरायता, पाठा, . नष्ट करता है ॥ १६४-१६६ ॥
खरेंटी ( बरियारीबीज ) कुटकी, मोरेठी तथा पिपरामूल यह चतुर्दशांगक्वाथः।
मुस्तादिगण' अथवा 'अष्टादशांग' क्वाथ कहा जाता है। चिरज्वरे वातकफोल्वणे वा
यह पित्तप्रधान सन्निपातमें विशेष हितकर है। मन्यास्तम्भ, त्रिदोषजे वा दशमूलमिश्रः।
छातीके दर्द तथा छाती, पसली व शिरकी जकड़ाहटको नष्ट किराततिक्तादिगणःप्रयोज्यः
करता है ॥ १७१-१७३ ॥ शुद्धयर्थिने वा त्रिवृताविमिश्रः ॥ १६७ ॥ . शट्यादिक्वाथः । वातकफप्रधान जीर्णज्वरमें अथवा वातकफप्रधान सन्निपात-| शटी पुष्करमूलं च व्याघ्री शृंगी दुरालभा । ज्वरमें दशमूलके सहित किराततिक्तादिगण (“ किराततिक्तकं| गुडूची नागरं पाठा किरातं कटुरोहिणी ॥ १७४॥ मुस्तं गुडूची नागरं तथा") की औषधियोंका क्वाथ देना चाहिये। एष शटयादिको वर्गः सन्निपातज्वरापहः। यदि विरेचनद्वारा शुद्धि कराना आवश्यक हो तो निशोथका |
कासहृद्रहपार्धार्तिश्वासे तन्द्रयां च शस्यते १७५ ।। चूर्ण मिलाकर देना चाहिये ॥१६॥
कचूर, पोहकरमूल, छोटी कटेरी, काकड़ासिंगी, यवासा, __ अष्टादशाङ्गक्वाथः।
गुर्च, सोंठ, पाढ़, चिरायता, कुटकी यह "शटयादिक्वाथ" सनिदशमूली शठी शृङ्गी पौप्करं सदुरालभम् । पातज्वर, कास, हृदयकी जकड़ाहट, पार्श्वशूल, तथा तंद्राको भाी कुटजबीजं च पटोलं कटुरोहिणी १६८॥ नष्ट करताहै ॥ १७४ ॥ १७५ ॥ अष्टादशाङ्ग इत्येष सन्निपातज्वरापहः । कासहदहपाश्वातिश्वासहिकावमीहरः १६९॥
बृहत्यादिकाथः। दशमूल, कचूर,काकड़ासिंगी, पोहकरमूल, यवासा, भारंगी, बृहत्यौ पुष्करं भाी शठी शृंगी दुरालभा। इन्द्रयव, परवलके पत्ते, कुटकी इसे ' अष्टादशांग क्वाथ' कहते . वत्सकस्य च बीजानि पटोलं कटुरोहिणी।।१७६॥ हैं। यह सन्निपातज्वर, खांसी, हृदयकी जकडाहट, पसलियोंका। बहत्यादिर्गण: प्रोक्तः सन्निपातज्वरापरः। दर्द, श्वास, हिक्का तथा वमनको नष्ट करता है। १६८॥१६९॥ कासादिषु च सर्वेषु देयः सोपद्रवेषु च ॥ १७७ ॥