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चक्रदत्तः।
[स्वस्थवृत्ता
सुखान्वितं पुष्टिबलोपपन्नं
ताम्बूलं क्षतपित्तास्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम् । विशुद्धरक्तं पुरुषं वदन्ति ॥ २५ ॥ विषमूर्छामदार्तानामपथ्यं चापि शोषिणाम् ।।५।। जिसका रक्त शुद्ध हो जाता है, उसकी इन्द्रियाँ प्रसन्न,
काला सुरमा नेत्रोंके लिये हितकर है। अतः इसका प्रतिवर्ण उत्तम तथा इन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छा और अग्नि दीप्त |दिन प्रयोग करना चाहिये । तथा सातवें या आठवें दिन होती है । तथा पुरुष सुखी, बल व पुष्टिसम्पन्न होता रावणके लिये रसौतका प्रयोग करना चाहिये। फिर नस्य,
गण्डूष, धूमपान और ताम्बूलका सेवन करना चाहिये ।
पर ताम्बूल व्रण, रक्तपित्त, रूक्ष, नेत्ररोग, विष, मूर्छा इति शिराव्यधाधिकारः समाप्तः ।
तथा नशासे पीड़ित और शोषवालोंके लिये हानिकर
अथ स्वस्थवृत्ताधिकारः।
अभ्यङ्गव्यायामादिकम् ।
अभ्यङ्गमाचरोन्नित्यं स जराश्रमवातहा। दिनचर्याविधिः।
शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत् ॥६॥
वज्योऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृतसंशद्धयजीणिभिः । ब्राझे मुहूर्ते उत्तिष्ठेत्स्वस्थो रक्षार्थमायुषः।। शरीरचिन्तां निवर्त्य कृतशोचविधिस्ततः ॥ १॥
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी ।। ७ ।।
देहव्यायामसंख्याता मात्रैया तां समाचरेत् । प्रोतर्युक्त्वा च मृद्वनं कषायकटुतिक्तकम् ।।
वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी च तं त्यजेत् ।।८ भक्षयेहन्तपवनं दन्तमांसान्यबाधयन् ॥ २॥
उतनं तथा कार्य ततः स्नानं समाचरेत् । नाबादजीर्णवमथुश्वासकासज्वरादितः।
उष्णाम्बुनाध:कायस्य परिषेको बलावहः ॥९॥ तृष्णास्यपाकहनेत्रशिरःकर्णामयी च तत् ॥३॥
तेनैव तूत्तमाङ्गस्य बलहत्केशचक्षुषाम् । स्वस्थ पुरुषको आयुरक्षाके लिये ब्राह्ममुहूर्तमें उठना चाहिये।। स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु ॥१०॥ तथा शरीरकी अवस्थाका विचारकर शौच आदि विधि करनी आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम् । चाहिये । तदनन्तर कषाय, कटु, या तिक्तरस युक्त दन्तधावनको | नीचरोमनखश्मश्रुनिर्मलाध्रिमलायनः ॥ ११ ॥ " दाँतोंसे खूब चबाचबाकर मुलायम कूची बना उसी कूचीसे | स्नानशीलः सुसुरभिः सुवेषो निर्मलाम्बरः। दाँतोंको इस प्रकार रगड़ना चाहिये कि दाँतोंके मांस न कट
धारयेत्सततं रत्नसिद्धमन्त्रमहौषधीः ॥ १२॥ जावें । तथा जिसे अजीर्ण, वमन, श्वास, कास, ज्वर, प्यास, मुखपाक तथा हृदय, नेत्र, शिर या कर्णके रोग हैं, उसे दन्त-| मालिश प्रतिदिन करनी चाहिये । वह मालिश थकाधावन न करना चाहिये ॥१-३॥
वट, वृद्धावस्था और वायुको नष्ट करती है। तथा शिर,
कान और पैरों में उसका प्रयोग विशेष कर करना चाहिये । अञ्जनादिविधिः।
तथा कफप्रस्त, संशोधन किये हुए और अजीर्णवालोंको सौवीरमजनं नित्यं हितमक्ष्णोः प्रयोजयेत ।
अभ्यङ्गन करना चाहिये। जो शरीरकी चेष्टा शरीरको बल
वान् बनाती तथा स्थिर रखती है, उसे "व्यायाम" कहते हैं । सप्तरात्रेऽष्टराने वा लावणार्थ रसाजनम् ।
उसे मात्रासे करना चाहिये। पर वातपित्तरोगयुक्त, बालक, ततो नावनगण्डूषधूमताम्बूलभाग्भवेत् ॥४॥
वृद्ध और अजीर्णवालोंको व्यायाम न करना चाहिये । इसके
अनन्तर उबटन लगाना चाहिये। फिर स्नान करना चाहिये । १“प्रातर्भुक्त्वा च" का अर्थ यद्यपि प्रातःकाल और
गल आर| शिरको छोड़ गरम जलसे स्नान करना पैरोंको बलवान् भोजन कर है, तथा चरको “द्वो कालो दन्तपवनं क्षयेन्मुख-लाता है। पर उसीसे शिर धोना बालों और नेत्रोंके लिये . धावनम् " से दो बार दन्तधावन बताया है । पर अधिकतर---
अधिकतर- हानिकर होता है। पर स्नान अदित, कर्णरोग, नेत्ररोग, मुखप्रचलित पद्धति प्रातःकालके लिये है । अतः प्रातःकालके लिये ही
रोग, आध्मान ( पेटका फूलना ), पीनस तथा अजीर्णसे लिखा है ॥
पीड़ित तथा भोजन किये हुए पुरुषोंको न करना चाहिये। तथा २“रात्रेः पश्चिमयामस्य मुहू? यस्तृतीयकः । रोम, नख, दाढी, मूंछ छोटे रखना अर्थत् बनवाये रहना ___स ब्राझ इति विशेयो विहितः स प्रबोधने "। चाहिथे । तथा पैर और मलस्थान साफ रखना चाहिये ।