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धिकारः]
- भाषाटीकोपेतः।
प्रतिमर्शस्तु नस्यार्थ करोति न च दोषवान् । चर्बी और वायुसहित पित्तमें घी और मज्जाकी नस्य देनी नस्तः स्नेहागुलिं दद्यात्प्रातर्निशि च सर्वदा ॥३॥| चाहिये ॥ ७-१० ॥ न चोच्छिङ्घदरोगाणां प्रतिमर्शः स दायकृत् ।
प्रधमनम्। निशाहर्भुक्तवान्ताहःस्वप्नाध्वश्रमरेतसाम् ॥ ४॥ शिरोऽभ्यजनगण्डूषप्रस्रावाञ्जनवर्चसाम् ।
ध्मापनं रेचनश्चू! युज्यास मुखवायुना ॥ ११ ॥ दन्तकाष्ठस्य हास्यस्य योज्योऽन्तेऽसौ द्विबिन्दुकः५ /
षडङ्गुलद्विमुखया नाडया भेषजगर्भया ।
स हि भूरितरं दोषं चूर्णत्वादपकर्षति ।। १२॥ जितना नेह कुछ जोरसे सूंघनेसे मुखमें पहुँच जाय, उसे |
"मापन" रेचनचूर्णके नस्यको कहते हैं। इसके प्रयोगकी विधि "प्रतिमर्शका" प्रमाण समझना चाहिये। प्रतिमर्शमें विशेषता यह ].
यह है कि, एक ६ अंगुल लंबी पोली नली लेकर औषध भरना है कि, वह नस्यके गुणोंको करता है और कोई आपत्ति नहीं |
चाहिये, फिर उस नलीका एक शिरा मुखमें और दूसरी शिरा करता । प्रातःकाल तथा सायंकाल स्नेहमें अंगुलि डुबोकर दो।
नासिकामें लगाकर मुखकी वायुसे फूंक देना चाहिये। यह चूर्ण बून्द नाकमें छोड़ना चाहिये और उसे ऊपर खींचकर थूकना|
| होनेके कारण बहुत दोष निकालता है ॥ ११॥१२॥ चाहिये । यह आगे पुरुषोंको बलवान् बनाता है । इसे रात्रि दिनके भोजन, वमन, दिननिद्रा, मार्गश्रम, शुक्रत्याग, शिरोऽ
शिगेविरेचनम् । भ्यङ्ग, गण्डष, प्रसेक (मुखसे पानी आने), अजन, मलत्याग, दन्तधावन तथा हसनेके अनन्तर दो बिंदुकी मात्रामें प्रयुक्त
शिरोविरेचनद्रव्यैः स्नेहर्वा तैः प्रसाधितः । करना चाहिये ॥२-५॥
शिरोविरेचनं दद्यात्तेषु रोगेषु बुद्धिमान् ॥ १३॥
गौरवे शिरसः शूले जाडथे स्यन्दे गलामये । ' अवपीडः।
शोषगण्डक्रिमिग्रन्थिकुष्ठापस्मारपीनसे ॥ १४ ॥ शोधनः स्तम्भनश्च स्यादवपीडो द्विधा मतः। स्निग्धस्विन्नोत्तमांगस्य प्राक्कृतावश्यकस्य च । अवपीड्य दीयते यस्मादवपीडस्ततस्तु सः ॥६॥
निवातशयनस्थस्य जत्रूवं स्वेदयेत्पुनः ॥१५॥
अथोत्तानर्जुदेहस्य पाणिपादे प्रसारिते । अवपीड़क नस्य शोधन वस्तम्भनभेदसे दो प्रकारका होता है ।। यह अवपीड़ित ( दवा निचोड़ ) कर दिया जाता है, अत: इसे |
किञ्चिदुन्नतपादस्य किञ्चिन्मूर्धनि नामिते॥१६॥ " अवपीड़क " कहते हैं ॥ ६॥
नासापुटं पिधायकं पर्यायेण निषेचयेत् ।
उष्णाम्बुतप्तं भैषज्यं प्रणाडया पिचुना तथा ॥१७॥ नस्यम् ।
दत्ते पादतलस्कन्धहस्तकर्णादि मर्दयेत् । स्नेहार्थ शून्यशिरसां ग्रीवास्कन्धोरसां तथा । शनैरुच्छिङ्घय निष्ठीवेत्पार्श्वयोरुभयोस्ततः॥१८॥ बलार्थ दीयते स्नेहो नस्तः शब्दोऽत्र वर्तते ॥ ७ ॥ आभेषजक्षयादेवं द्वित्रिर्वा नस्यमाचरेत् । नस्यस्य नहिकस्याथ देयास्त्वष्टौ तु बिन्दवः । । स्नेहं विरेचनस्यान्ते दद्यादोषाद्यपेक्षया ॥ १९ ॥ प्रत्येकशो नस्तकयोर्नृणामिति विनिश्चयः ॥ ८॥ ज्यहात्व्यहाच्च सप्ताहं स्नेहकर्म समाचरेत् । शुक्तिश्च पाणिशुक्तिश्च मात्रास्तिस्रः प्रकीर्तिताः।। एकाहान्तारतं कुर्याद्रचनं शिरसस्तथा ॥२०॥ द्वात्रिंशाद्वन्दवश्चात्र शुक्तिरित्यभिधीयते ॥ ९॥ ।
शिरोविरेचन. द्रव्य अथवा उन्हीं द्रव्योंसे सिद्ध स्नेहोंसे वक्ष्यद्वे शुक्ती पाणिशुक्तिश्च देयात्र कुशलैनरैः ।।
माण (शिरोविरेचनसाध्यरोगोंमें ) शिरोविरेचन देना चाहिये। तैलं कफेच वाते च केवले पवने वसाम् ॥ १० ॥ शिरोविरेचनसे शिरका भारीपन, पीड़ा, जड़ता, अभिष्यन्द, गलदद्यान्नस्तः सदा पित्ते सर्पिर्मजा समारुते । रोग, शोष, गलगण्ड, क्रिमि, प्रन्थि, कुष्ठ, अपस्मार और
जो स्नेह नासिका द्वारा शून्य मस्तिष्कवालोंके लिये तथा पीनसरोग नष्ट होते हैं। उत्तमांगका स्नेहन, स्वेदन कर पहिले ग्रीवा, स्कन्ध और छातीके बलार्थ और स्नेहनार्थ दिया जाता है | मलमूत्रादि त्याग कर वातरहित स्थानमें जत्रुसे ऊपर स्वेदन उसे "नस्य" कहते हैं । स्नैहिक नस्यकी मात्रा ८ बिन्दु प्रत्येक करना चाहिये । इसके अनन्तर उत्तानसीधी देह सुला तथा नासापुटमें छोड़नेकी है, तथा सामान्यतः शुक्ति, पाणिशुक्ति और पैर कुछ ऊँचे और शिर कुछ नीचे कर एक नासापुट बंद कर पूर्वोक्त प्रत्येक नासापुंटमें ८ बिन्दु इस प्रकार नस्यकी ३ मात्राएँ दूसरेमें फिर दूसरा बंद कर पहिलेमें पर्यायसे उष्णजलमें गरम हैं। ३२ बिंदु "शुक्ति" तथा ६४ बिन्दु “पाणिशुक्ति" कहीं की हुई औषधि नली अथवा फोहासे छोड़ना चाहिये । औषध जाती है। कफ और कफवातजरोगमें तैल, केवल वायुमें छोड़ देनेपर पैरके तलुवे, कंधे, हाथ और कान आदिका मर्दन