________________
विकारः ]
भाषाको पैतः ।
जीरकघृतम् ।
नीर कल्कं पश्चात्सिक्थक सर्जरसमिश्रितं हरति । घृतमभ्यङ्गात्पावकद्ग्धजदुःखं क्षणार्धेन ॥ ४६ ॥ जीरा के कल्कसे सिद्ध घृतमें मोम व राल मिलाकर लगाने से अदिग्ध दुःख क्षण भरमें शान्त हो जाता है ॥ ४६ ॥
विविधा योगाः ।
।
अन्तर्दग्ध कुठेरको दहनजं लेपान्निहन्ति व्रणमश्वत्थस्य विशुष्कवल्कलकृतं चूर्ण तथा गुण्डनात् अभ्यङ्गाद्विनिहन्ति तैलमखिलं गण्डूपदेः साधितं पिष्ट्वा शाल्मलितूलकैर्जलगता लेपात्तथा वालुका४७
अन्तर्दग्ध सफेद तुलसीका लेप करनेसे अभिसे जले व्रण शांत होते हैं। तथा पीपलकी सूखी छालके चूर्णको उर्रानेसे भी शान्ति होती है । तथा केचुवोंसे सिद्ध तैल अग्नि दग्धज समग्र पीड़ा शान्त करते हैं । तथा सेमरकी रुईके साथ बालूको जलमें पीसकर लेप करनेसे शान्ति होती है ॥ ४७ ॥
सद्योव्रणचिकित्सा |
सद्यः क्षतत्रणं वैद्यः सशूलं परिषेचयेत् । यष्टीमधुककल्केन किश्चिदुष्णेन सर्पिषा ॥ ४८ ॥ बुद्ध्वागन्तुव्रणं वैद्यो घृतं क्षौद्रसमन्वितम् । शीतां क्रियां प्रयुञ्जीत पित्तरक्तोष्मनाशिनीम् ॥ ४९ ॥ कान्तक्रामकमेकं सुश्लक्ष्णं गव्यसर्पिषा पिष्टम् । शमयति लेपान्नियतं व्रणमागन्तूद्भवं न सन्देहः ५० अपामार्गस्य संसिक्तं पत्रोत्थेन रसेन वा । सद्योव्रणेषु रक्तं तु प्रवृत्तं परितिष्ठति ॥ ५१ ॥ कर्पूरपूरितं बद्धं सघृतं संप्ररोहति । सद्यः शस्त्रक्षतं पुंसां व्यथापाकविवर्जितम् ॥५२॥ शरपुंखा काकजंघा प्रसूतमहिषीमलम् । लज्जावती च सद्यस्कत्रणघ्नं पृथगेव तु ॥ ५३ ॥
जिह्वाकृतचूर्णः सद्यः क्षतविरोहणः । वक्रतैलं क्षते विद्धे रोपणं परमं मतम् ॥ ५४ ॥
शूलयुक्त व्रण सद्योव्रण ( तत्काल लगे घाव ) में मौरेठीसे सिद्ध घीका कुछ गरम गरम सिंचन करना चाहिये । तथा वैद्य आगन्तुकत्रण जानकर उसमें प्रथम घी व शहदको लगावे । फिर पित्तरक्त और गर्मी नष्ट करनेवाली शीतल चिकित्सा करे। एक नागरमोथाकी जड़ गायके घीके साथ पीसकर लेप करनेसे आगन्तुक व्रण निःसन्देह नष्ट होता है । तात्कालिक घावके बहते हुए रक्तको लटजीरे के पत्तों के रससे सिश्चन कर रोकना चाहिये । तथा
साथ कपूर भरकर बान्ध देनेसे घाव भर जाता । पुरुषोंके सद्योत्रण जिनमें पीड़ा नहीं होती या जो पके नहीं हैं, उनको
( २०११
शरपुंखा, काकजंघा, ब्याई भैसीका गोबर तथा लज्जावती ये सब | अलग अलग तत्काल शान्त करते हैं । कुत्तेकी जिह्वाका चूर्ण सद्योत्रणको भरता है । तथा चक्रतैल ( ताजा तैल) क्षत तथा विन्धेको भरनेवाला है ॥ ४८-५४ ॥
नष्टशल्यचिकित्सा |
यवक्षारं भक्षयित्वा पिण्डं दद्याद्रणोपरि । शृगालकोलिमूलेन नष्टशल्यं विनिः सरेत् ॥ ५५ ॥ लाङ्गली मूललेपाद्वा गवाक्षीमूलतस्तथा ।
जवाखार खाकर घावके ऊपर छोटे बेरकी जड़का कल्क रखना चाहिये । इससे नष्ट शल्य निकल आता है। इसी प्रकार कलिहारी की जड़के लेप तथा इन्द्रायणकी जड़के लेपसे भी नष्ट शल्य निकल आता है ॥ ५५ ॥ -
विशेष चिकित्सा |
क्षतोष्मणो निग्रहार्थं तत्कालं विसृतस्य च ॥ ५६ ॥ कषायशीतमधुराः स्निग्धा लेपादयो हिताः । आमाशयस्थे रुधिरे वमनं पथ्यमुच्यते ॥ ५७ ॥ पक्काशयस्थे देयं च विरेचनमसंशयम् । काथो वंशत्वरण्डश्वदंष्ट्राश्मभिदा कृतः ॥ ५८ ॥ सहिंगुसैन्धवः पीतः कोष्ठस्थं स्रावयेदसृक् । यवकोलकुलत्थानां निःस्नेहेन रसेन च ॥ ५९ ॥ भुंजीतान्नं यवागूं वा पिबेत्सैन्धवसंयुताम् । अत्यर्थमत्रं स्रवति प्रायशो यत्र विक्षते ॥ ६० ॥ ततो रक्तक्षयाद्वायौ कुपितेऽतिरुजाकरे । स्नेहपानं परीषेक स्नेहले पोपनाहनम् ॥ ६१ ॥ स्नेहवस्ति च कुर्वीत वातन्नौषधसाधिताम् । इति साप्ताहिकः प्रोक्तः सद्योत्रणहितो विधिः॥ ६२॥ सप्ताहात्परतः कुर्याच्छारीरव्रणवत्क्रियाम् ।
तत्काल लगे हुए घावकी गर्मी शान्त करनेके लिये तथा रक्तको रोकनेके लिये कषैले, ठण्ढ़े, मधुर, तथा चिकने लेपादिक हितकर हैं । आमाशय में यदि रक्त भर गया हो, तो वमन कराना चाहिये । तथा पक्वाशय में भरे रक्तको निकालने के लिये विरेचन देना चाहिये । बांसकी छाल, एरण्ड, गोखरू व पाषाणभेदका क्वाथ हींग व सेंधानमक मिलाकर पीनेसे कोष्ठ में भरा हुआ रक्त बह जाता है । तथा यव, बेर व कुलथी के स्नेहरहित रससे भोजन करे । अथवा इन्हीं की यवागूमें सेंधानमक मिलाकर पीने । तथा अधिक रक्त बह जानेपर वायु कुपित होकर जिस व्रणमें पीड़ा अधिक करे, उसमें स्नेहपान, स्नेहसिश्चन तथा स्निग्ध पदार्थों का लेप व उपनाहन करना चाहिये । तथा वातनाशक औषधियों से सिद्ध क्वाथ करके लेहबस्तिका प्रयोग करना चाहिये । यह सात