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(२०२)
चक्रदत्तः।
[व्रणशोथा
म
दिनतक सद्योत्रणमें करने योग्य चिकित्सा बतायी है । सप्ताहके | सर्पिषा वटकीकृत्य खादेद्वा हितभोजनः । अनन्तर शारीरव्रणके समान चिकित्सा करनी चाहिये॥५६-६२॥ दुष्टव्रणापचीमेहकुष्ठनाडीव्रणापहः ॥७॥ व्रणक्रिमिचिकित्सा।
वायविडंग, त्रिफला, तथा त्रिकटुका चूर्ण समान भाग करजारिष्टनिर्गुडीरसो हन्याद्रणक्रिमीन् ॥ ६३॥
| गुग्गुलुके साथ घी मिला गोली बनाकर पथ्य भोजनके साथ
खाते रहनेसे दुष्टव्रण, अपची, प्रमेह, कुष्ठ और नाडीव्रण नष्ट कलायविदलीपत्रं कोषाम्रास्थि च पूरणात् ।
होते हैं ॥ ६९ ॥७०॥ सुरसादिरसैः सेको लेपनं स्वरसेन वा ॥ ६४॥ निम्बसम्पाकजात्यर्कसप्तपर्णाश्ववारकाः।
अमृतागुग्गुलुः। क्रिमिना मूत्रसंयुक्ताः सेकालेपनधावनैः ॥६५॥ अमृतापटोलमूलत्रिफलात्रिकटुक्रिमिनानाम् । प्रच्छाद्य मांसपेश्या वा क्रिमीनपहरेद्रणात् । । समभागानां चूर्ण सर्वसमो गुग्गुलोर्भागः ।।७१॥ लशुननाथवा दद्याल्लेपनं क्रिमिनाशनम् ॥६५॥ प्रतिवासरमेकैकां गुडिकां खादेद् द्रंक्षणप्रमाणाम् । कक्षा, नीम और सम्भालूके पत्तोका रस घावके कीडोंको
जेतुंबणान्वातरक्तगुल्मोदरश्वयथुपाण्डुरोगादीन् ७२ मारता है। इसी प्रकार मटरकी पत्ती तथा छोटे आमकी गुठलीका| गुर्च, परवलकी जड़, त्रिफला, त्रिकटु, तथा वायविलेप अथवा तुलसी आदिके रसका सेक अथवा लेप क्रिमियोंको डंग प्रत्येक समान भाग चूर्ण कर सबके समान गुग्गुलु मिला नष्ट करता है। इसी प्रकार नीमकी छाल, अमलतास, चमेली, प्रतिदिन १ तो० की मात्राका सेवन करनसे व्रण, वातरक्त, आक, सातवन तथा कनैरको पीस गोमूत्रमें मिलाकर सिञ्चन, लेप गुल्म, उदर, सूजन तथा पांडु आदि रोग नष्ट होते हैं॥७१॥७२॥ तथा प्रक्षालन करनेसे क्रिमि नष्ट हो जाते हैं। अथवा घावके
जात्यायं घृतम् । ऊपर मांसका टुकड़ा रखना चाहिये, उसमें जब क्रिमि चिपट जायँ, तब उसे घावके ऊपरसे हटा देना चाहिये। अथवा
जातीनिम्बपटोलपत्रकटुकादा/निशाशारिवालहसुनका लेप करना चाहिये । इससे क्रिमि नष्ट हो मजिष्ठाभयतुत्थसिक्थमधुकनेक्ताहबीजेः समः। जाते हैं ॥ ६३-६६ ॥
सर्पिः सिद्धमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः स्राविणो
गम्भीराःसरुजो व्रणाःसगतिकाःशुष्यन्ति रोहति च ७३ त्रिफलागुग्गुलुवटकः।
चमेली अथवा जावित्री, नीम तथा परवलकी पत्ती, कुटकी, ये क्लेदपाकसुतिगन्धवन्तो
दारुहल्दी, हल्दी, शारिवा, मजीठ, खश, तूतिया, मोम, व्रणा महान्तः सरुजः सशोथाः ।
| मौरेठी, कजाके बीज प्रत्येक समान भागका. कल्क मिलाकर प्रयान्ति ते गुग्गुलुमिश्रितेन
सिद्ध किया गया घृत सूक्ष्ममुखवाले, मर्मस्थानके, बहते पीतेन शान्ति त्रिफलारसेन ॥ ६७॥ हुए, गहरे, पीडायुक्त नासूर सूख जाते तथा भर जाते हैं॥७३॥ जो व्रण सड़े, पके, स्राव, गन्ध, पीड़ा तथा शोथयुक्त |
गौराद्यं घृतं तैलं च । होते हैं, वे गुग्गुल मिलाकर त्रिफलारसको पानसे शान्त हो। जाते हैं ॥६ ॥
गारा हरिद्रा मजिष्ठा मांसी मधुकमेव च ।
प्रपोण्डरीकं हीबेरं भद्रमुस्तं सचन्दनम् ॥ ७४॥ त्रिफलागुग्गुलुवटकः।
जातीनिम्बपटोलं च करजं कटुरोहिणी । त्रिफलाचूर्णसंयुक्तो गुग्गुलुर्वटकीकृतः।
मधूच्छिष्टं समधुकं महामेदा तथैव च ॥ ७५ ॥ नियन्त्रणो विबन्धनो व्रणशोधनरोपणः॥६८॥ | पञ्चवल्कलतोयेन घृतप्रस्थं विपाचयेत् । अमृतागुग्गुलुः शस्तो हितं तैलं च वज्रकम् । एष गौरो महावीर्यः सर्वव्रणविशोधनः ॥ ७६ ॥ त्रिफला चूर्णके साथ गुग्गुलुकी बनायी हुई गोलियोंका आगन्तुः सहजश्चैव सुचिरोत्थाश्च ये व्रणाः । सेवन करनेमें कोई पथ्यका यन्त्रण नहीं है। इससे विबन्ध नष्ट विषमामपि नाडी च शोधयेच्छीघ्रमेव च ॥ ७७॥ होता, घाव शुद्ध होकर भरता है । तथा इसमें अमृतागुग्गुलु व | गौराद्यं जातिकाद्यं च तैलमेवं प्रसाध्यते । बज्रक तैल हितकर हैं ॥ ६८ ॥- .
तैलं सूक्ष्मानने दुष्टे व्रणे गम्भीर एव च ॥ ७८॥ विडंगादिगुग्गुलुः।
गोरोचन, हल्दी, मजीठ, जटामांसी, मौरेठी, पुण्डरिया, विडङ्गत्रिफलाव्योषचूर्ण गुग्गुलुना समम् ॥ ६९॥ सुगन्धवाला, नागरमोथा, चन्दन, चमेली अथवा जावित्रा,