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[ क्षुद्ररोगा
गुदं च गव्यपयसा क्षयेदविशङ्कितः । दुष्प्रवेशो गुदभ्रंशो विशत्याशु न संशयः ॥ २८ ॥ मूषिकाणां वसाभिर्वा गुदे सम्यक्प्रलेपनम् । स्विन्नमूषिकमांसेन चाथवा स्वेदयेद् गुदम् ||२९|| गुदभ्रंश में स्नेहकी मालिश कर गुदाको प्रविष्ठ करना चाहिये । प्रविष्ट हो जानेपर स्वेदन कर गोफणाबन्धसे बान्ध देना चाहिये । | तथा जो कोमल कमलिनीके पत्तोंको शकरके साथ खाता है, उसकी गुदा निःसन्देह नहीं निकलती तथा कोकम अथवा अम्लवेत, चीत, चाङ्गेरी, बेल, पाठा तथा जवाखार इन ओष धियों के चूर्णको मट्ठेके साथ खानेसे गुदभ्रंश नष्ट होता है और अनि दीप्त होती है । यदि गुदा बैठती न हो, तो गायके दूधका सिवन करना चाहिये, इससे गुदा शीघ्र ही बैठ जाती है । मूसोंकी वसासे गुदामें लेप करना अथवा मूषिकामांससे स्वेदन करना चाहिये ॥ २५-२९ ॥
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पद्मिनीकण्टक चिकित्सा । निम्बोदकेन वमनं पद्मिनीकण्टके हितम् । निम्बोदककृतं सर्पिः सक्षीद्रं पानमिष्यते ॥ २० ॥ पद्मनालकृतः क्षारः पद्मिनीं हन्ति लेपतः । निम्बारग्वधकल्कैर्वा मुहुरुद्वर्तनं हितम् ॥ २१ ॥ नीमके जलसे वमन कराना पद्मिनीकण्टकमें हितकर है। तथा नीमके जलसे सिद्ध घृतमें शहदको मिलाकर पीना चाहिये । तथा कमलकी डण्डीकी क्षारका लेप पद्मिनीको नष्ट करता है । तथा नीम व अमलतास के कल्कका बारबार उवटन करना श्वाहिये ॥ २० ॥ २१ ॥
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कदरको खुरचकर तैल अथवा अग्निसे जलाना चाहिये । चिप्पकको गरम जलसे स्वेदित करनेके अनन्तर खुरच कर उस व्रणमें रालका चूर्ण उर्राकर व्रणके समान चिकित्सा करनी चाहिये । तथा काले लोहके पात्रमें हल्दी के स्वरस से हरेको घिसकर चिप्पमें बारबार लेप करना चाहिये । तथा चिप्पमें सुहागा और आस्फोते की जड़का लेप नाखूनको उत्पन्न करता है ॥ १७-१९ ॥
चक्रदत्तः ।
जालगर्दभचिकित्सा | नीलीपटोलमूलाभ्यां साज्याभ्यां लेपनं हितम् । जालगर्दभरोगे तु सद्यो हन्ति च वेदनाम् ॥ २२ ॥ घीसे मिलित नील व परवलकी जड़का लेप जालगदर्भ रोगको नष्ट करता तथा पीड़ाको शान्त करता है ॥ २२ ॥
अहिपूतनकचिकित्सा |
अहिपूतन के धात्र्याः पूर्वं स्तन्यं विशोधयेत् । त्रिफलाखदिरक्काथैर्ब्रणानां धावनं सदा ॥ २३ ॥ करञ्जत्रिफलातिक्तैः सर्पिः सिद्धं शिशोर्हितम् । रसाञ्जनं विशेषेण पानालेपनयोर्हितम् ॥ २४ ॥ अहिपूतनामें पहिले घायका दूध शुद्ध करना चाहिये। तथा त्रिफला व कत्थाके काथस सदा घावोंको धोना चाहिये । तथा का, त्रिफला व तिक्तद्रव्योंसे सिद्ध घृत बालकों के लिये हितकर है। तथा पीने व लेपके लिये विशेषकर रसौत हितकर हैं ॥ २३ ॥ २४ ॥
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चांगेरीघृतम् । चाङ्गेरीकोलदध्यम्लनागरक्षारसंयुतम् । घृतमुत्कथितं पेयं गुदभ्रंशरुजापहम् । Tusharrat कल्को शिष्टं तु द्रवमिष्यते ॥ ३० ॥ अमोनिया, बेर, दही, काजी, सौंठ और क्षारसे सिद्ध घृत गुदभ्रंशको नष्ट करता है। इसमें सौंठ व क्षारका कल्क तथा शेषद्रव छोड़ना चाहिये ॥ ३० ॥
मूषिकातैलम् ।
क्षीरे महत्पञ्चमूलं मूषिकामन्त्रवर्जिताम् । पक्त्वा तस्मिन्पचेत्तैलं वातघ्नौषधसाधितम् ॥ ३१॥ गुदभ्रंशमिदं तैलं पानाभ्यङ्गात्प्रसाधयेत् ॥ ३२ ॥ दूधमें महत्पञ्चमूल और आन्तोरहित मूषिकाको पका कर उसी क्वाथमें वातनाशक ओषधियोंके सहित तैल सिद्ध करना चाहिये । यह तैल पीने तथा मालिश करनेसे गुदभ्रंशको नष्ट करता है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
परिकर्तिका चिकित्सा । स्वेदोपनाही परिकर्तिकायां
कृत्वा समभ्यज्य घृतेन पश्चात् । प्रवेशयेच्च शनैः प्रविष्टै
गुदभ्रंशचिकित्सा |
गुदभ्रंशे गुदं स्नेहैरभ्यज्याशु प्रवेशयेत् ।
र्मासैः सुखोष्णैरुपनाहयेच्च ॥ ३३ ॥ परिकर्तिका में स्वेदन तथा उपनाह कर घीसे मालिश कर धीरे प्रविष्टे स्वेदयेच्चापि बद्धं गोफणया भृशम् ॥ २५ ॥ धीरे चर्म प्रविष्ट करना चाहिये। फिर कुछ गरम गरम मांससे कोमलं पद्मिनीपत्रं यः खादेच्छर्करान्वितम् । स्वेदन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ एतन्निश्चित्य निर्दिष्टं न तस्य गुदनिर्गमः ॥ २६ ॥ वृक्षाम्लानलचाङ्गेरीबिल्वपाठायवाग्रजम् । तक्रेण शीलयेत्पायुभ्रंशार्तोऽनलदीपनम् ॥ २७ ॥
अवपाटिकादिचिकित्सा ।
स्नेहस्वेदैस्तथैवैनां चिकित्सेदवपाटिकाम् । निरुद्धप्रकशे नाडीं द्विमुखीं कनकादिजाम् ॥ ३४ ॥