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चक्रदत्तः।
। [विरेचनासन्च
वमन ठीक न होनेपर फफोले, ददरे या खुजली उत्पन्न हो। वमन, विरेचन तथा शोणितमोक्षणमें १३॥ पल अर्थात् ५४ जाती, मुख खराब तथा शरीरमें भारीपन होता है । तथा| तो० का प्रस्थ विद्वान् लोग मानते हैं ॥ १९॥ आतवमन हो जानेपर प्यास, मोह, मूर्छा, चातकोप, निद्रा और बलको बहुत हानि होती है ॥ १४ ॥
अयोगातियोगचिकित्सा। संसर्जनक्रमः।
अयोगे लङ्घनं कार्य पुनर्वापि विशोधनम् ।
अतिवान्तं घृताभ्यक्तमवगाह्य हिमे जले ॥२०॥ ततः सायं प्रभाते वा क्षुद्वान्पेयादिकं भजेत् ॥१५॥
उपाचरेत्सिताक्षौद्रमित्रैलेंहश्चिकित्सकः पेयां विलेपीमकृतं कृतं च
वमनेऽतिप्रवृत्ते तु हृद्यं कार्य विरेचनम् ॥ २१ ॥ यूषं रसं त्रिईिरथैकशश्च ।
अयोग होनेपर लंघन करना चाहिये । अथवा फिर शोधन क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः
करना चाहिये । तथा वमनका अतियोग होचेपर घीकी मालिश प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः ॥१६॥ कर ठण्ढे जलमें बैठाना चाहिये । और मिश्री व शहद मिले लेह फिर 'सायंकाल अथवा प्रातःकाल भूख लगनेपर ( वमन चटाना चाहिये । तथा हृद्य विरेचन देना चाहिये ॥ २० ॥२१॥ ठीक हो जानेपर ) पेया आदिक क्रम प्रारम्भ करे । प्रधान, मध्य, और हीन शुद्धिमें क्रमशः तीन तीन अन्नकाल, दो दो
अवाम्याः । अन्नकाल अथवा एक अन्नकालतक पेया, विलेपी, अकृतयूष, न वामयेत्तैमिरिकं न गुल्मिनं कृतवूष अथवा मांसरसका सेवन करना चाहिये ।। १५॥१६॥ ___ न चापि पाण्डूदररोगपीडितम् । हीनमध्योत्तमशुद्धिलक्षणम् ।
स्थूलक्षतक्षीणकृशातिवृद्धा
नोंर्दिताक्षेपकपीडितांश्च ॥ २२ ॥ जघन्यमध्यप्रवरे तु वेगाश्वत्वार इष्टा वमने षडष्टी।
रूक्षे प्रमेहे तरुणे च गर्भ दशैव वे द्वित्रिगुणा विरेके
___ गच्छत्यथोव रुधिरे च तीव्र। प्रस्थस्तथा द्वित्रिचतुर्गुणश्च ॥ १७ ॥
दुष्टे च कोष्ठे क्रिमिभिर्मनुष्यं वमनमें क्रमशः चार, छः, आठ तथा विरेचनमें क्रमशः |
न बामयेदर्शसि चातिवृद्धे ॥ २३ ॥ १०, २०, ३० वेग हीन, मध्यम, व उत्तम कहे जाते हैं । तथा
एतेऽप्यजीर्णव्यथिता वाम्या ये च विषातुराः । विरेचनमें २ प्रस्थ, ३ प्रस्थ अथवा ४ प्रस्थ, मलका निकलना
अत्युल्वणकफा ये च ते च स्युर्मधुकाम्बुना ॥२४॥ हीन, मध्यम व उत्तम कहा जाता है ॥ १७ ॥
तिमिर, गुल्म, पाण्डु तथा उदररोगसे पीड़ित, मोटे, क्षत
क्षीण, कुश, अतिवृद्ध, अर्श और आक्षेपसे पीड़ित, रूक्ष, शुद्धिमानम्।
| प्रमेही, नवीन गर्भवती तथा ऊर्ध्वगामी रक्तपित्तसे पीड़ित व पित्तान्तमिष्टं वमनं विरेका
क्रिमिकोष्ठवाले तथा बढ़े हुए अर्शमें बमन नहीं कराना चाहिये। दर्ध कफान्तं च विरेकमाहुः।
पर इन्हें भी यदि अजीर्ण या विषका असर हो गया हो, तो द्वित्रान्सविट्कानपनीय वेगान्
बमन कर देना चाहिये । तथा यदि कफ अधिक बढा हुआ मेयं विरेके वमने तु पीतम् ॥ १८॥ हो, तो मौरेठीके क्वाथसे वमन करा देना चाहिये ॥२२-२४॥ वमन करते करते जब पित्त आने लग जाय, तब ठीक वमन ' इति वमनाधिकारः समाप्तः । समझना चाहिये। तथा वमनमें विरेचनसे आधा मल (उत्तम २ प्रस्थ, मध्यम १॥ प्रस्थ, हीन १ प्रस्थ) निकलना चाहिये । और विरेचनमें कफ आने लगे, तब उत्तम विरेचन समझना चाहिये । तथा विरेचनमें मलयुक्त २ या ३ वेग छोड़कर गिनना चाहिये । तथा वमनमें पीतमात्रको छोड़कर गिनना
सामान्यव्यवस्था। चाहिये ॥१८॥
स्निग्धस्विन्नाय वान्ताय दातव्यं तु विरेचनम् । '
अन्यथा योजितं ह्येतद ग्रहणीगदकृन्मतम् ॥१॥ प्रस्थमानम् ।
पूर्वोक्तविधिसे स्नेहन, स्वेदन तथा वमन कराकर विरेचन वमने च विरेके च तथा शोणितमोक्षणे । देना चाहिये, अन्यथा विरेचन करानेसे ग्रहणीरोग उत्पन्न हो सार्धत्रयोदशपलं प्रस्थमाहुर्मनीषिणः ॥ १९॥ जाता है ॥ १॥
अथ विरेचनाधिकारः।