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धिकारः] . भाषाटीकोपेतः।
(३२३) न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न अथ वमनाधिकारः।
मैरेठीके क्वाथमें अड़सा, इन्द्रयव, सेंधानमक व बचका
कल्क और शहद मिलाकर पीनेसे ठीक वमन होता है । इसी 40
प्रकार प्रियंगुकी छाल चाबलके जल में पीस गरम कर गुनगुना
२ पानसे कृत्रिम विष व पित्तकफज रोग शान्त होते हैं और सामान्यव्यवस्था।
| वमन ठीक होता है । तथा ताम्रभस्मको शहहके साथ चाटकर स्निग्धस्विन्नं कफे सम्यक्संयोगे वा कफोल्बणे।।
वमन करनेसे गरदोष (कृत्रिमबिष) नष्ट होता है। इसी प्रकार
अडूसाका पञ्चांग, बच, नीम, परवल व प्रियंगुकी छालका क्वाथ श्वोवम्यमुक्लिष्टकर्फ मत्स्यमांसतिलादिभिः॥१॥
बना मैनफल मिला पीनेसे वमन होता है ॥६-९॥ यथाविकारं विहितां मधुसैन्धवसंयुताम् । कोष्ठ विभज्य भैषज्यमात्रां मन्त्राभिमन्त्रिताम्॥२॥
वमनार्थ काथमानम् । कफज तथा कफप्रधान संयोगजव्याधिमें ठीक ठीक स्नेहन, | काथ्यद्रव्यस्य कुडवं श्रपयित्वा जलाढके । स्वेदन कर पहिले दिन कफकारक मछलियाँ मांस और तिल चतुर्भागावशिष्टं तु वमनेष्ववचारयेत् ॥ १० ॥ आदि खिला कफ बढाकर दूसरे दिन प्रातःकाल रोगके अनुसार १६ तो० क्वाथ्य द्रव्य ले जल ६ सेर ३२ तोला मिलाकर बनायी गयी औषधमात्रामें शहद व सेंधानमक मिला मंत्रद्वारा पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर वमनके अभिमंत्रितकर रोगीको पिलाना चाहिये ॥१॥२॥ लिये काममें लाना चाहिये ॥१०॥ मन्त्रः ।
निम्बकषायः। "ब्रह्मदक्षाश्विरुन्द्रेद्रभूचन्द्रार्कानिलानलाः।
निम्बकषायोपेतं फलिनीगदमदनमधुकसिन्धूत्थम् । ऋषयः सौषधिग्रामा भूतसङ्घाश्च पान्तु ते ॥३॥मधुयुतमेतद्वमनं कफतः पूर्णाशये सदा शस्तम् ॥११॥ रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा ।
नीमकी पत्ती व छालके काढेमें प्रिया, कूठ, मैनफल, सधेवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते" ॥४॥ मौरेठी व सेंधानमकका कल्क और शहद मिला पीकर वमन यह मंत्र सार्थक है। मंत्रार्थ-ब्रह्मा, दक्ष, अश्विनीकुमार, करना कफपूर्ण कोष्ठवालेको सदा हितकर होता है ॥ ११॥ रुद्र, इंद्र, भूमि, चन्द्र, सूर्य, वायु, अग्नि, ऋषि, ओषधियां और भूतगण तुम्हारी रक्षा करें। तथा यह औषध ऋषियोंके लिये
वमनद्रव्याणि । रसायन, देवताओंके लिये अमृत तथा उत्तम नागोंके लिये सुधाके
फलजीमूतकेक्ष्वाकुकुटजाः कृतवेधनः । समान तुम्हें गुणकारी हो॥३॥४॥
धामार्गवश्व संयोज्याः सर्वथा वमनेष्वमी ॥ १२ ॥ . वमनौषधपाननियमः।
वमनके लिये मैनफल, वन्दाल, कडुई तोम्बी, कुड़ेकी छाल, पूर्वाह्ने पाययेत्पीतो जानुतुल्यासने स्थितः। कडुई तोरई और अरों तरोईका सब प्रकार (काथ, कल्क, तन्मना जातहृल्लासप्रसेकश्छदयेत्ततः ॥५॥ चूर्ण, अवलेह आदिका) प्रयोग करना चाहिये ॥ १२ ॥ अंगुलीभ्यामनायस्तनालेन मृदुनाथवा । वमनकारक औषध प्रातःकाल पिलाना चाहिये । तथा पीलेने
सम्यग्वमितलक्षणम् । पर घुटनेके बराबर ऊँचे आसनपर वमन करनेके विचारसे बैठना क्रमात्कफः पित्तमथानिलश्च चाहिये । फिर मिचलाई तथा मुखसे पानी आनेपर वमन ___ यस्यति सम्यग्वमितः स इष्टः । करना चाहिये । यदि इस प्रकार वमन न हो, तो अंगुली डाल-| हृत्पार्श्वमूर्धेन्द्रियमार्गशुद्धी कर अथवा मृदु नालसे वमन करना चाहिये ॥५॥
तनोर्लघुत्वेऽपि च लक्ष्यमाणे ॥ १३ ।। वमनकरा योगाः।
जिसके कफ, पित्त व वायु क्रमशः आते हैं, हृदय, पस- . वृषेन्द्रयवसिन्धूत्थवचाकल्कयुतं पिबेत् । लियां, मस्तक और इन्द्रियां तथा मार्ग शुद्ध होते हैं, तथा शरीर यष्टीकषायं सक्षौद्रं तेन साधु वमत्यलम ॥६॥ | हल्का होता है, उसे ठीक वमित समझना चाहिये ॥१२॥ तण्डुलसलिलानष्पिष्टं यः पीत्वा वमति पूर्वाह्ने ।
दुर्वमितलक्षणम् । फलिनीवल्कलमुष्णं हरति गरं पित्तकफजं च ॥७॥ दुश्चर्दिते स्फोटककोठकण्डूक्षौद्रलीढं ताम्ररजो वमनं गरदोषनुत् ॥८॥
वक्त्राविशुद्धिर्गुरुगात्रता च । आंटरूष वचां निम्बं पटोलं फलिनीत्वचम् ।
तृण्मोहमूर्छानिलकोपनिद्राकाथयित्वा पिबेत्तोयं वान्तिकृन्मदनान्वितम् ॥९॥। बलातिहानिर्वमितेऽतिविद्यात् ॥ ११ ॥