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धिकारः ]
भाषाटीकोपेतः।
(१७९)
पीत्वाशु हन्यादुदरं प्रवृद्धं
___त्वग्दोषशोथोदरपाण्डुरोगकृमीन्सशोथानुदरं च दूष्यम् ॥ ४८ ॥
स्थौल्यप्रसेकोर्ध्वकफामयेषु ॥ ५३॥ देवदारु, सहिजनकी छाल, लटजीरा, और असगन्धको।
पुनर्नवा, देवदारु, बड़ी हर्रका छिल्का, तथा गुर्चका क्वाथ या गोमूत्रमें पीसकर पीनेसे उदर, क्रिमि,शोथ तथा सन्निपातोदर नष्ट
MIचूर्ण, गोमूत्र और गुग्गुल मिलाकर पीनेसे त्वग्दोष, शोथ, उदर, होता है ॥४८॥
पाण्डुरोग, स्थौल्य, मुखसे पानी आना तथा ऊर्ध्व भागके कफ
रोग नष्ट होते हैं ॥ ५३॥ दशमूलादिकाथः। दशमूलदारुनागरछिन्नरुहापुनर्नवाभयाकाथः ।
गोमूत्रादियोगः। जयति जलोदरशोथश्लीपदगलगण्डवातरोगांश्च।।४९ गोमूत्रयुक्तं महिषीपयो वा
दशमूल, देवदारु, सोंठ, गुर्च, पुनर्नवा और बड़ी हरोंके क्षीरं गवां वा त्रिफलाविमिश्रम् । छिल्केका क्वाथ जलोदर, शोथ, श्लीपद, गलगण्ड और वातरोगोंको
क्षीरानभक्केवलमेव गव्यं नष्ट करता है ॥ ४९ ॥
__ मूत्रं पिबेद्वा श्वयथूदरेषु ।। ५४ ॥ .
गोमूत्रके साथ भैसीका दूध अथवा गोदूग्धके साथ त्रिफलाका ___ हरितक्यादिक्वाथः।
चूर्ण अथवा केवल गोमूत्र पीनसे तथा दूधका ही पथ्य लेनेसे हरीतकीनागरदेवदारुपुनर्नवाछिन्नरुहाकषायः । सूजन उदररोग नष्ट होता है ॥ ५४ ॥ सगुग्गुलुर्मूत्रयुतश्च पेयःशोथोदराणां प्रवरःप्रयोगः।। बड़ी हरोंके छिल्के, सोंठ, देवदारु, पुनर्नवा और गुर्चका
· पुनर्नवादिचूर्णम् । क्वाथ, गुग्गुलु और गोमूत्र मिलाकर पीनेसे शोथयुक्त उदरको | पुनर्नवा दावमृता पाठा बिल्वं श्ववंष्ट्रिका । नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है ॥ ५० ॥
बृहत्यो द्वे रजन्यौ द्वे पिप्पल्यश्चित्रकं वृषम् ॥५५॥ एरण्डतैलादियोगत्रयी।
समभागानि संचूर्ण्य गवां मूत्रेण ना पिबेत् । एरण्डतैलं दशमूलमिश्रं
बहुप्रकारं श्वयधुं सर्वगात्रविसारिणम् । __गोमूत्रयुक्तत्रिफलारसो बा।
हन्ति शूलोदराण्यष्टौ व्रणांश्चैवोद्धतानपि ॥ ५६ ।।
पुनर्नवा, देवदारु, गुर्च, पाढ़, बेलका गूदा, गोखरू, निहन्ति वातोदरशोथशूलं
छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, हल्दी, दारुहल्दी, छोटी पीपल, काथःसमूत्री दशमूलजश्च ॥५१॥ चीतकी जड़, तथा अडूसा सब समान भाग चूर्ण कर (१) दशमूल क्वाथके साथ एरण्डतैल, अथवा (२) गोमूत्रके गोमूत्रके साथ पीनेसे समस्त शरीरमें फैली हुई अनेक प्रकारसाथ त्रिफलाका रस अथवा (३) गोमूत्रयुक्त दशमूलका क्वाथ की सूजन शूलयुक्त आठों उदर तथा उद्धत व्रण नष्ट होते वातोदर, शोथ और शूलको नष्ट करता है॥५१॥
हैं ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ पुनर्नवाष्टकः क्वाथः।
माणपायसम्। पुनर्नवानिम्बपटोलशुण्ठी
पुराणं माणकं पिष्ट्वा द्विगुणीकृततण्डुलम् । तिक्ताभयादार्वमृताकवायः।
साधित क्षीरतोयाभ्यामभ्यसेत्पायसं ततः ॥ ५७ ॥ सर्वाङ्गशोथोदरकासशूल
हन्ति वातोहरं शोथ ग्रहणी पाण्डुतामपि । श्वासान्वितं पाण्डुगदं निहन्ति ॥ ५२॥ | सिद्धो भिषम्भिरांख्यांत: प्रयोगोऽयं निरत्ययः॥५८ पुनर्नवा, नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, सोंठ, कुटकी, पराने मानकन्दको पीसकर कन्दसे द्विगुण चावल मिला दूध बडी हर्रका छिल्का, देवदारु, तथा गुर्चका काथ, सर्वाङ्ग- जमा खीर बनाकर खानेसे वातोटाशोथ शोथ, उदर, कास, शूल, श्वास और पाण्डुरोगको नष्ट करता व पाण्डुरोग, नष्ट होते हैं । इस प्रयोगमें कोई आपत्ति नहीं
होती, यह वैद्योंका अनुभूत है ॥५७ ॥ ५८ ॥ पुनर्नवागुग्गुलुयोगः।
दशमूलषट्पलकं घृतम् । पुनर्नवां दार्वभयां गुडूची .
दशमूलतुलाधरसे सक्षारैः पञ्चकोलकैः पलिकैः।। पिबेत्समूत्रां महिषामयुक्ताम् । सिद्धं घृतार्धपात्रं द्विमस्तुकमुदरगुल्मन्नम् ॥५९ ॥
है ॥५२॥