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[उदराजन्मन्नन्स्च्न्न्न्न्न्न्न्न प्रयोग करनेसे यह चूर्ण जलोदरादि समस्त उदर तथा कामला, कल्क कर गोमुत्रके साथ पीना चाहिये । इससे उदररोग नष्ट पाण्डुरोग और सूजनको नष्ट करता है ॥ २८-३२॥ होता है ॥४१॥ नारायणचूर्णम् ।
___ माहिषमूत्रयोगः।
सक्षीरं माहिष मूत्रं निराहारः पिबेन्नरः । यमानी हपुषा धान्यं त्रिफला:सोपकुञ्चिका ।
शाम्यत्यनेन जठरं सप्ताहादिति निश्चयः ॥ ४२ ॥ कारवी पिप्पलीमूलंमजगन्धा शटी वचा ॥ ३३ ॥
निराहार रहकर गायके दूधको भैसेके मुत्रके साथ पीनेसे ७ शताहा जीरकं व्योषं स्वर्णक्षारी सचित्रकम् । दिनमें उदररोग नष्ट होता है ॥४२॥ . द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपञ्चकम् ॥ ३४॥ विडङ्गं च समांशानि दन्त्या भागत्रयं तथा ।
गोमूत्रयोगः। त्रिवृद्विशाले द्विगुणे शातला स्याञ्चतुर्गुणा ॥ ३५॥ गवाक्षीशविनीदन्तीनीलिनीकल्कसंयुतम् । एष नारायणो नाम चूर्णोरोगगणापहः । सर्वोदरविनाशाय गोमूत्रं पातुमाचरेत् ।। ४३ ॥ नैनं प्राप्याभिवर्धन्ते,रोगा विष्णुमिवासुराः ॥३६॥ इन्द्रायण, कालादाना, दन्ती तथा नीलके कल्कके साथ गोमूत्र तणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदराम्बुना । पीनेसे समस्त उदररोग नष्ट होते हैं ॥ ४३ ॥ आनद्धवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया ॥ ३७॥
अर्कलवणम् । दधिमण्डेन विट्सङ्गे दाडिमाम्बुभिरशसि ।
अर्कपत्रं सलवणमन्तधूमं दहेत्ततः । परिकर्ते च वृक्षाम्ले रुष्णाम्बुभिरजीर्णके ॥ ३८ ॥
मस्तुना तत्पिबेरक्षारं गुल्मप्लीहोदरापहम् ॥४४॥ भगन्दर पाण्डुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे ।
आकके पत्ते और नमक दोनोंको अन्तर्धूम पकाकर महीन हृद्रोगे ग्रहणीदोषे कुष्ठे मन्दानले अरे ॥ ३९ ॥ पीस
| पीस दहीके तोड़के साथ पीनेसे गुल्म और प्लीहा नष्ट होता दंष्ट्राविषे मूलविषे सगरे कृत्रिम विष । यथाह स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ।। ४०॥
शिक्काथः। अजवायन, हाऊबेर, धनियां, त्रिफला, कलौंजी, कालाजीरा,
पीतः प्लीहोदरं हन्यात्पिप्पलीमारिचान्वितः। पिपरामूल, अजवाइन, कचूर, बच, सौंफ, जीरा, त्रिकटु, स्वर्ण
अम्लवेतससंयुक्तः शिक्काथः ससैन्धवः ॥४५॥ क्षीरी, चीतकी जड़, जवाखार,सज्जीखार, पोहकरमूल, कूठ,पाचों-|
सहिजनका काथ छोटी पीपल, काली मिर्च, अम्लवेत नमक तथा वायविडंग, प्रत्येक १ भाग, दन्ती३ भाग, निसाथ और,
|और सेंधानमकका चूर्ण मिलाकर पीनेसे प्लीहोदर नष्ट होता इन्द्रायण प्रत्येक २ भाग,शातला (सेहुण्डभेद )४ भाग इनका चूर्ण || करना चाहिये । यह चूर्ण रोगसमूहको नष्ट करता है। इसके सेवनसे रोग इसभांति नष्ट होते हैं जैसे विष्णु भगवानसे इन्द्रवारुणीमूलोत्पाटनम् । राक्षस । उदरवालोंको मठेके साथ, गुल्मवालों को बेरके क्वाथके गृहीत्वा यस्य संज्ञां पाटयित्वेन्द्रवारुणीमूलम् । साथ, वायुकी रुकावटमें शराबके साथ, वातरोगमें शराबके
प्रक्षिप्यते सुदूरे शाम्येत प्लीहोदरं तस्य ॥ ४६॥ स्वच्छभागके साथ, मलकी रुकावटमें दहीके तोड़के साथ,
जिसका नाम लेकर इन्द्रायणकी जड़ उखाड़ दूर फेंक दी अनारक रससे अर्शमें, परिकतेन (गुदाम कचास काटना साजाय, उसका प्लीहोदर शान्त हो जाताहै ॥ ४६॥ प्रतीत होने ) में बिजोरेके रससे, तथा अजीर्णमें गरम जलसे पीना चाहिये । स्निग्धकोष्ठ पुरुषको विरेचनके लिये यथोचित
रोहितयोगः। अनुपानके साथ, भगन्दर, पाण्डुरोग, कास, श्वास, गलग्रह, रोहीतकाभयाक्षोदभावितं मूत्रमम्बु वा । हृद्रोग, ग्रहणीदोष, कुष्ठ, मन्दाग्नि, ज्वर, दंष्ट्राविष, मूलविष, | पीतं सर्वोदरप्पीहमेहार्श:क्रिमिगुल्मनुत् ॥४७॥ गरविष तथा कृत्रिमविषमें इसे पीना चाहिये ॥३३-४०॥ | रुहेड़ेकी छाल ब बड़ी हर्रका चूर्ण कर गोमूत्र अथवा जलके
साथ पीनेसे समस्त उदर, प्लीहा, मेह, अर्श, क्रिमि और गुल्म दन्त्यादिकल्कः।
नष्ट होते हैं ॥ ४७॥ दन्ती वचा गवाक्षी च शंखिनी तिल्वकं त्रिवृत् ।
देवद्रुमादिचूर्णम् । गोमूत्रेण पिबेत् कल्कं जठरामयनाशनम् ॥ ४१ ॥ देवद्रुमं शिग्रु मयूरकं च दन्ती, बच, इन्द्रायण, कालादाना, लोध तथा निसोथका गोमूत्रपिष्टानथ साऽश्वगन्धान् ।