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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
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अपरे योगाः।
कूर्मपृष्ठसमानापि रुह्या या रोमतस्करी ।
अपरं कृष्णीकरणम् । दिग्धा सानेन जायेत ऋक्षशारीरलोमशा ।। १००॥ त्रिफलाचूर्णसंयुक्तं लोहचूर्ण विनिक्षिपेत् । सेहुण्डका दूध, आकका दूध, भांगरा, कलिहारी, सींगिया, ईषत्पक्के नारिकेले भृङ्गराजरसान्विते ॥ १०७ ॥ बकरीका मूत्र, गोमूत्र, गुजा, इन्द्रायण तथा सरसोंका कल्क मासमेकं तु निक्षिप्य सम्यग्गर्भात्समुद्धरेत् । छोड़कर सिद्ध किया गया सरसोंका तैल खालित्यको नष्ट करता ततः शिरो मुण्डयित्वा लेपं दद्याद्भिषग्वरः ॥१०८॥ है। कछुवेकी पीठके समान लोमरहित रुह्या इसकी मालिशसे | संवेष्टय कदलीपत्रैर्मोचयेत्सप्तमे दिने । ऋक्षके समान बालोंसे युक्त होती है ॥ ९८-१०० ॥ क्षालयेत्रिफलाक्वाथैः क्षीरमांसरसाशिनः ॥ १०९ आदित्यपाकतैलम् ।
कपालरञ्जनं चैतत्कृष्णीकरणमुत्तमम्।
कुछ पके नरियलमें भांगरेका रस छोड़कर त्रिफलाचर्ण व वटावरोहकेशिन्योश्चर्णेनादित्यपाचितम् ।
लोहचूर्ण छोड़ बन्दकर गढ़ेमें गाड़ देना चाहिये । एक मासके गुडूचीस्वरसे तैलं चाभ्यङ्गाकेशरोपणम् ॥ १०१॥ अनन्तर निकालकर शिरका मुण्डन करा लेप करना चाहिये ।
ऊपरसे केलेके पत्तेको लपेटकर बांध देना चाहिये। फिर ७ दिनके बरगदका वा व जटामासाक चूणस युक्त किय गुचक स्वरसमोलका त्रिफला काटेसे धोना चाहिये। दध नशा मांग. सर्यकी किरणोंसे पकाये तैलकी मालिश करनेसे बालोंको उत्पन्न बाद खोलकर त्रिफलाके काढ़ेसे धोना चाहिये। दूध तथा मांसकरता है॥१०॥
रसका भोजन करना चाहिये । यह शिर तथा बालोंको काला
करता है अर्थात् एक प्रकारका खिजाब है ॥ १०७-१०९॥ चन्दनादितैलम् । चन्दनं मधुकं मूर्वा त्रिफला नीलमुत्पलम् । उत्पलं पयसा सार्ध मासं भूमौ निधापयेत् ॥११०॥ कान्ता वटावरोहश्च गुडूची बिसमेव च ।। १०२॥ केशानां कृष्णकरणं स्नेहनं च विधीयते । लोहचूर्ण तथा केशी शारिवे द्वे तथैव च । भृङ्गपुष्पं जपापुष्पं मेषीदुग्धप्रपेषितम् ॥ १११ ॥ मार्कवस्वरसेनैव तैलं मृद्वग्निना पचेत् ।। १०३ ।। तेनैवालोडितं लौहपात्रस्थं भूम्यधःकृतम् । शिरस्युत्पतिताः केशा जायन्ते घनकुञ्चिताः । सप्ताहादुद्धृतं पश्चाद् भृङ्गराजरसेन तु ॥ ११२ ।। दृढमूलाश्च स्निग्धाश्च तथा भ्रमरसन्निभाः। आलोडयाभ्यज्य च शिरो वेष्टयित्वा वसेन्निशाम् । नस्येनाकालपलितं निहन्यात्तैलमुत्तमम् ।। १०४॥ प्रातस्तु क्षालनं कार्यमेवं स्यान्मूर्धर जनम् । चन्दन, मौरेठी, मूर्वा, त्रिफला, नीलोफर, प्रियङ्गु, वटकी |
एवं सिन्दूरबालाम्रशङ्खभृङ्गरसैः क्रिया ।।११३ ॥ वौं, गुर्च, कमलके तन्तु, लोहचूर्ण, जटामांसी, शारिवा तथा |
नीलोफर दूधके साथ महीनेभर पृथिवीमें गाड़कर लेप करनेसे काली शारिवाके कल्क और भांगरेकेस्वरससे मन्द आंचसे पकाया बाल काले तथा चिकने होते है। इसी प्रकार भाजराके फल व गया तैल मालिशशे शिरके उखड़े बालोंको घने घुघुराले, चिकने, जपाके फूल, भेड़के दूधमें पीस उसीमें मिला लोहेके बर्तन में भ्रमरके समान काले तथा दृढमूल बनाता है। इसके नस्यसे | पृथिव के अन्दर गाड़ सात दिनमें निकालकर भांगरेके रसमें अकालपलित नष्ट होता है । १०२-१०४ ॥
मिलाकर मालिश करना चाहिये और पत्तोंसे लपेट देना चाहिये।
प्रातःकाल धोना चाहिये । इस प्रकार शिर काला होता है। इसी यष्टीमधुकतैलम् ।
प्रकार सिन्दूर, कच्चे आमकी गुठली व शंखको यथाविधि साधित तैलं सयष्टीमधुकैः क्षीरे धात्रीफलैः शृतम् ।
कर भांगरेके रससे क्रिया करनी चाहिये ॥११०-११३॥ नस्ये दत्तं जनयति केशामणि चाप्यथ ॥१०५॥
शङ्खचूर्णप्रयोगः। मौरेठी व आंवलेके कल्क तथा दूधमें पकाये तैलका नस्य
नवदग्धशङ्खचूर्ण लेनेसे बालों तथा मूछोंको उत्पन्न करता है ॥ १०५ ॥ ___ काजिकसिक्तं हि सीसकं घृष्ट्वा । कृष्णीकरणम् ।
लेपात्कचानर्कदलैत्रिफला नीलिनीपत्रं लोहं भृङ्गरजःसमम् ।
बंद्धान्करोति हि नीलतरान् ॥ ११४॥ अविमत्रेण संयुक्तं कृष्णीकरणमुत्तमम् ॥ १०६॥ नवीन शंखभस्मको काजीमें डुबोकर शीसा घिसकर बालोंमें त्रिफला, नीलकी पत्ती, लौह तथा भांगराको भेड़के मूत्रमें लगा ऊपरसे आकके पत्ते बांधनेसे सफेद बाल अतिशय नील मिलाकर लेप करनेसे बाल काले होते हैं॥ १०६॥ होते हैं ॥११४॥
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