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मान्यौ शोधितश्रृंगवेरशकला द्वे सिन्ध्वजाज्यो: पले कृष्णोषणयोर्निश युगं निक्षिप्य भाण्डे दृढे५९ स्निग्धे : धान्ययवादिराशिनिहितं त्रीन्वासरान्स्थापयेद् प्रीष्मे तोयधरात्यये च चतुरो वर्षासु पुष्पागमे। बशीतेऽष्टदिनान्यतः परमिदं विस्रात्र्य सनचूर्णयेचातुर्जातपलेन संहितमिदं शुक्तं च चुक्रं च तत् ६० हन्याद्वातकफामदोषजनितान्नानाविधानामयान् । दुर्नामा निलगुल्मशुलजठरान्हत्वाऽनलं दीपयेत् ६१ ॥
चक्रदत्तः ।
तंडुलोदक ( पूर्ववर्णित विधिसे बनाया ) एक प्रस्थ, सुषोदक ( भूसी सहित यव व उड़दकी काजी ) तीन प्रस्थ, काजी तीन प्रस्थ, दही आधा प्रस्थ, काजी में उठायी गयी मूली आठ पल, गुड़ दो मानी अर्थात् एक प्रस्थ, साफ किये अदरक के टुकड़े एक प्रस्थ, सेंधा नमक 'पल, सफेद जीरा दो पल, छोटी पीपल दो पल, काली मिर्च दो पल, हल्दी ४ पल सब एक चिकने तथा दृढ़ बर्तनमें भर मुख बन्दकर धान्यराशिमें रख देना चाहिये । ग्रीष्म तथा शरदृतु में तीन दिन, वर्षा कालमें चार दिन, वसन्त ऋतुमें छः दिन तथा शीतकालमें आठ दिनतक रखना चाहिये । फिर निकाल छानकर दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशरका चूर्ण प्रत्येकका एक एक पल मिलाना चाहिये । यह 'शुक्त ' तथा 'चुक' कहा जाता है । यह वातकफ तथा आमदोषजन्य अनेक प्रकारके रोग, अर्श, वातगुल्म, शूल, उदररोग आदिको नष्ट करता तथा अग्निको दीप्त करता है ॥ ५९-६१ ॥
तक्रारिष्टम् ।
यवान्यामलकं पथ्या मरिचं त्रिपलांशकम् । लवणानि पलांशानि पञ्च चैकत्र चूर्णयेत् ॥ ६२ ॥ तक्रकंसासुतं जातं तत्रारिष्टं पिबेन्नरः ।
काञ्जीसन्धानम् ।
वाट्यस्य दद्याद्यवशक्तकानां पृथक्पृथक्त्वाढकसम्मितं च ।
मध्यप्रमाणानि च मूलकानि । दद्याच्चतुःषष्टिसुकल्पितानि ॥ ६४ ॥ द्रोणेऽम्भसः प्लाव्य घटे सुधीते दद्यादिदं भेषजजातयुक्तम् । क्षारद्वयं तुम्बुरुवस्तगन्धाधनीयकं स्याद्विडसैन्धवं च ॥ ६५ ॥ सौवर्चलं हिंगु शिवाटिकां च
चव्यं च दद्याद् द्विपलप्रमाणम् । इमानि चान्यानि पलोन्मितानि
[ प्रहण्य
विजर्जरीकृत्य घटे क्षिपेच ॥ ६६ ॥ कृष्णामजाजीमुपकुञ्चिकां च
तथासुरीं कारविचित्रकं च । पक्षस्थितोऽयं बलवर्णदेह
वयस्करोऽतीव बलप्रदश्च ॥ ६७ ॥ कां जीवयामीति यतः प्रवृत्तस्तत्काजिति प्रवदन्ति तज्ज्ञाः । आयामका लाज्जरयेच्च भक्त
मायामिति प्रवदन्ति चैनम् ॥ ६८ ॥ दकोदरं गुल्ममथ प्लिहानं हृद्रोगमानाहमरोचकं च । मन्दाग्नितां कोष्ठगतं च शूल
मर्शोविकारान्सभगन्दरांश्च ।। ६९ ।। तामानाशु निहन्ति सर्वान् संसेव्यमानो विधिवन्नराणाम् ॥ ७० ॥
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दीपनं शोथगुल्मार्शः क्रिमिमहोदरापहम् ॥ ६३॥ अजवाइन, आमला, छोटी हर्र, काली मिर्च प्रत्येक १२ तोला, पांचो नमक प्रत्येक ४ तोला सब महीन कपड़छान चूर्ण कर एक आढ़क ( २५६ तोला द्रवद्वैगुण्यात् ६ सेर ३२ तोला मट्ठा मिलाकर धान्यराशिमें रखकर खट्टा कर लेना चाहिये फिर इसे ४ तोलाकी मात्रासे पीना चाहिये । यह अग्मिको दीप्त करनेवाला तथा शोथ, गुल्म, अर्श, क्रिमिरोग, प्रमेह तथा उदररोगको नष्ट करता है ॥ ६२ ॥ ६२ ॥
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तुष रहित यवका बनाया गया मण्ड तथा यवोंके सत्तु अलग अलग एक एक आढक, मध्यम प्रमाणकी अर्थात् न अधिक पतली न मोटी मूलीके ६४ टुकड़े एक द्रोण जल-ये ओषधियां दुरकुचाकर छोड़ना चाहिये | यवाखार, सज्जीखार, सब एक साथ धोये हुए घड़े में भरना चाहिये, तथा नीचे लिखी तुमरू, नेपाली धनियां, अजवाइन, धनियां, विडनमक, सैंधापुनर्नवा, चव्य- प्रत्येक दो दो पल तथा छोटी पीपल, सफेद नमक, काला नमक, भुनी हींग, हिंगुपत्री या वंशपत्री ( नाड़ी ), जीरा, कलौंजी, राई, काला जीरा, चीतकी जड़-प्रत्येक एक एक पल छोड़कर घड़ेका मुख बन्द कर रख देना चाहिये । पन्द्रह दिनके बाद निकाल छानकर पीना चाहिये । यह बल, वर्ण तथा शरीरको बढ़ाता है, जीवनी शक्तिको प्रदान करता है, अतएव इसे ' काञ्जी' कहते हैं। भोजनको एक प्रहरके अन्दर ही पचा देता है, अतएव इसे ' आयामिका' कहते हैं। जलोदर, गुल्म, प्लीहा, हृद्रोग, अफारा, अरुचि, मन्दाग्नि,
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तथा समस्त वातरोगोंको नष्ट
( १ ) बृहच्चुकोत ऋतुभेदसे समयका निश्चय करना कोष्ठशूल, अर्श, भगन्दर | करता है ।। ६४-७० ॥
चाहिये ।