________________
धिकारः].
भाषाटीकोपेतः।
(४१)
चांगेरीघृतम् ।
प्लीहा, कास, श्वास, क्षय, अर्श, भगन्दर तथा कफवात वे
क्रिमिजन्य रोगोंको इस प्रकार नष्ट करता है जिस प्रकार सुखी नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हेस्तिपिप्पली।
लकड़ीको अग्नि भस्म कर देता है ॥ ४७-५१॥श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका॥४४ चांगेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेतर्वपाचितम् ।
महाषट्पलकं घृतम् । चतुर्गुणेन ना च तद् घृतं कफवातनुत् ॥ ४५ ॥ सौवर्चलं पञ्चकोलं सैन्धवं हपुषां वाम् ॥५२॥ अशीसि ग्रहणीदोषं मूत्रकृच्छ्रे प्रवाहिकाम् ।।
अजमोदां यवक्षारं हिंगु जीरकमौद्भिदम् । गुदभ्रंशतिमानाहं धृतमेतद्वथपोहति ॥ ४६॥ | कृष्णाजाजी सभूतीक कल्कीकृत्य पलार्धकम् । सोंठ, पिपरामूल, चीतकी जड़, चव्य, गोखरू, छोटी | आर्द्रकस्य रसं चुकं क्षीरं मस्त्वम्लकालिकम् । पीपल, थनियां कच्चे बलका गूदा, पाढ़ तथा अजवाइनका दशमूलकषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ५४ ॥ कल्क, अमलोनियाका स्वरस तथा चतुर्गुण दही मिलाकर सिद्ध
भक्तेन सह दातव्यं निर्भक्तं वा विचक्षणैः। किया गया घृत कफ तथा वायुजन्य अर्श, ग्रहणीदोष, मूत्र
क्रिमिप्लीहोदराजीणेज्वरकुष्ठप्रवाहिकाम् ॥ ५५ ॥ कृच्छ, प्रवाहिका, गुदभ्रंश, ( कांच निकलना ) तथा अफाराको |
वातरोगान् कफव्याधीन्हन्याच्छूलमरोचकम् । नष्ट करता है ॥ ४४-४६ ॥
पाण्डुरोगं क्षयं कासं दोबल्यं ग्रहणीगदम् ॥५६॥ मरिचायं घृतम् ।
महाषट्पलकं नाम वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा । मरिचं पिप्पलीमूलं नागरं पिप्पली तथा ।
काला नमक, छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, भल्लातकं यवानी च विडंगं हस्तिपिप्पली ॥४७॥ सोंठ, सेंधानमक, हाऊबेर, बच दूधिया, अजमोदा, यवाखार, हिगुसौवर्चलं चैव बिडसैन्धवदाय॑थ ।।
हींग, सफेद जीरा, खारी नमक, काला जीरा, अजवाइन-प्रत्येक सामुद्रं सयवक्षारं चित्रको वचया सह ॥४८ ॥ वस्तु दो दो तोले लेके कल्क बनाकर तथा अदरखका रस, एतैरर्द्धपलैर्भागैघृतप्रस्थं विपाचयेत् ।
चुक्र, दूध, दहीका तोड़, खट्टी काजी तथा दशमूलका क्वाथ दशमूलीरसे सिद्धं पयसा द्विगुणेन च ॥४९॥ प्रत्येक एक एक प्रस्थ छोड़कर एक प्रस्थ घृत पकाना चाहिये। मन्दानीनां हितं चैतद् ग्रंहणीदोषनाशनम् ।
| यह घत भोजनके साथ अथवा केवल सेवन करना चाहिये। यह विष्टम्भमामं दौर्बल्यं प्लीहानमपकर्षति ॥ ५० ॥
घृत क्रिमि, प्लीहा, उदररोग, अजीर्ण, ज्वर, कुष्ठ, प्रवाहिका,वात
रोग, कफरोग, शूल, अरोचक, पाण्डुरोग, क्षय, कास, दुर्बलता कास श्वासं क्षयं चैव दुर्नाम सभगन्दरम् ।
तथा ग्रहणीरोगको ऐसे नष्ट कर देता है जैसे इन्द्रवज्र वृक्षको कफजान् हन्ति रोगाश्च वातजान्क्रिामसम्भवान्५१ नष्ट करता है।५२-५६॥ तान्सर्वान्नाशयत्याशु शुष्कं दार्वनलो यथा । काली मिर्च, पिपरामूल, सोंठ, छोटी पीपल, भिलावा,
चुक्रनिर्माणविधिः। अजवाइन, वायविडंग, गजपीपल, हींग, काला नमक, विडन
यन्मस्त्वादि शुचौ भाण्डे सगुडझौद्रकाजिकम् ५७ मक, सेंधा नमक, दारुहल्दी, सामुद्र नमक, यवक्षार, चीतकी जड़ तथा बच प्रत्येक दो दो तोला, घी चौसठ तोला, (द्रवद्वै
धान्यराशौ त्रिरात्रस्थं शुक्तं चुकं तदुच्यते । गुण्यात् १२८ ॥ तो =१ सेर ९ छ० ३ तो०) घीसे द्विगुण
द्विगुणं गुडमध्वारनालमस्तुक्रमादिह ।। ५८ ॥ दूध तथा द्विगुण ही दशमूलका क्वाथ मिलाकर पकाना चाहिये ।
__शुद्ध पात्रमें गुड़ १ भाग, शहद २ भाग, काजी ४ भाग.
दहीका तोड ८ भाग भरकर अनाजके ढेरमें तीन रात्रि तक रखयह घृत मन्दाग्नि, ग्रहणीदोष, कब्जियत, आमदोष, दुर्बलता,
नसे सिरका रूप "चुक्र" बन जाता है ॥ ५७॥ ५८॥ १यहां पर"हस्तिपिप्पली"से चव्य ही लेना चाहिये । ऐसा ही
बृहच्चुक्रविधानम् । जतुकर्णने भी माना है और हस्तिपिप्पली चव्यका पयार्य भी है। तद्यथा “चविका कोलवल्ली च हस्तिपापल्यपाध्यते " इति ।। प्रस्थं तण्डुलतोयतस्तुषजलात्प्रस्थत्रयं चाम्लतः
(२) दुग्धे दनि रसे तके कस्को देयोऽष्टमांशकः ।। प्रस्थाध दधितोऽम्लमूलकपलान्यष्टी गुडान्मानिके । कल्कस्य सम्यक् पाकाथ तोयमत्र चतुर्गुणम् ॥ इस परिभाषाके अनुसार यहां कल्क चतुर्थांश और कल्कसे चतुर्गुण जल | १ इसमें 'वचाम् ' के स्थानमें 'विडम् ' भी पाठान्तर है। छोड़ना चाहिये।
२ दघ्नस्तूपार थत्तोयं तन्मस्तु परिकीर्तितम् ।