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[ज्वरातिसारा
धोके पीने तथा मालिश करनेसे अभिधात ज्वर नहीं| क्रोधजन्य ज्वरमें पित्त शान्त करनेवाली चिकित्सा, इष्ट विषरहता ॥२७॥
।योंकी प्राप्ति तथा मनोहर वार्तालाप लाभदायक होता है । काम,
क्रोध तथा भयसे उत्पन्न ज्वर आश्वासन, इष्ट विषयोंकी प्राप्ति भतानां ब्रणितानां च क्षतव्रणचिकित्सया।
लथा प्रसन्नताकारक उपायोंसे शान्त होते हैं । कामसे क्रोधज्वर, ओषधीगन्धविषजी विषपीतप्रबाधनैः ॥२७८ ॥
क्रोधसे कामज्वर और उन दोनोंसे भय-शोकजन्य ज्वर शान्त जयेत्कषायैर्मतिमीन्सर्वगन्धकृतस्तथा।
हो जाता है ॥२८० ॥ २८१॥ २८२ ॥ जिनके क्षत (आगन्तुक व्रण) अथवा व्रण ( शारीर ) हो।
भूतज्वरचिकित्सा। गया हो, उनकी क्षतव्रणकी चिकित्सा करनी चाहिये । ओषधिगन्धजन्य तथा विषजन्य ज्वर में विषपीतके लिये जो काथ| भूतविद्यासमुद्दिष्टेबन्धावेशनताडनैः। बताये गये हैं, उनका प्रयोग करना चाहिये । तथा सर्वगन्ध जयद् भूताभिषंगोत्थं मनःसान्त्वैश्व मानसम् २८३ द्रव्योंका काथ बनाकर पिलाना चाहिये ॥२७८॥-- | भूतविद्या ( मुश्रुत-उत्तर तन्त्रमें ) बताये बन्ध आवेशन,
ताइन आदिसे भूतज्वरको शान्त करना चाहिये । तथा मानसिक चाभिशापोत्थी ज्वरी होमादिना जयत् ७९ भयशोकादिजन्य ज्वरको मनको प्रसन्न करनेवाले उपायों तथा दानस्वस्त्ययनातिथ्यैरुत्पातग्रहपीडजी।
धैर्यात्मादिविज्ञानसे जीतना चाहिये ॥ २८३॥ अभिचार ( मारणक्रिया-इयेनयागादि ) तथा अभिशाप (क्रुद्ध महर्षिके अनिष्ट वचन ) तथा अशुभ वनादिपात अथवा
ज्वरमुक्ते वज्यानि । प्रहकी पीड़ासे उत्पन्न ज्वरको होम बलि, माल दान, स्वस्ति- व्यायामं च व्यवायं च स्नानं चंक्रमणानि च । वाचन, अतिथिपूजन आदिसे जीतना चाहिये ॥२७९॥ . ज्वरमक्तो न सेवेत यावन्नो बलवान्भवेत ॥२ ॥
जब तक बलवान् न हो जाय, ज्वरमुक्त हो जानेपर भी क्रोधकामादिज्वरचिकित्सा ।
| कसरत, मैथुन व स्नान न करे, तथा विशेष टहले नहीं ॥२८४ ॥ क्रोधजे पित्तजित्काम्या अर्थाः सद्वाक्यमव च२८० आश्वासेनेष्टलाभेन वायोः प्रशमनेन च ।
विगतज्वरलक्षणम् । हर्षणैश्च शमं यान्ति कामक्रोधभयज्वराः ॥२८॥
देहा लघुर्व्यपगतलममोहतापः कामाक्रोधज्वरो नाशं क्रोधात्कामसमुद्भवः ।
पाको मुखे करणसौष्ठवमव्यथत्वम् । याति ताभ्यामुभाभ्यां च भयशोकसमुद्भवः २८२॥
स्वेदः क्षवः प्रकृतिगामिमनोऽन्नलिप्सा
कण्डूश्च मूर्ध्नि विगतज्वरलक्षणानि ॥२८५।। १ सर्वगन्धसे “ चातुर्जातककर्पूरकंकोलागुरुशिलकम् । लत्र
शरीर हलका हो जावे, ग्लानि, मूर्छा, तथा जलन शान्त हो सहितं चैव सर्वगन्धं विनिर्दिशेत् ॥
जावें, मुखमें दाने पड़कर पक जावें, इन्द्रियां अपने अपने
| विषयोंको ग्रहण करने में समर्थ हों। किसी प्रकारकी पीड़ा न हो, यह निघण्टुक्त गण न लेना चाहिये । किन्तु सुश्रुतोक्त |
पसीना तथा छींकें आती हों, मन प्रसन्न हो, भोजनमें रुचि हो -एलादि गण ही लेना चाहिये। क्योंकि यह गण बहिःपरि
तथा मस्तकमें खुजली होना-यह ज्वर मुक्त के लक्षण हैं ॥२८५॥ मार्जनार्थ उद्वर्तनादिके लिये ही है। सुश्रुतोक्त एलादि:-एला ( एलायची) तगर, कुष्ठ (कूठ) मांसी ( जटामांसी ) ध्या
इति ज्वराधिकारः समाप्तः । मक (रौहिषतृण) त्वक् (दालचीनी) पत्र ( तेज-पात ) नागपुष्प (नागकेशर) प्रियंगु ( गुजराती धेड़ला ) हरेणुका अथ ज्वरातिसाराधिकारः। (सम्भालूके, बीज ) व्याघ्रनख (नखभेदः) शुक्ति ( बदरपत्राकारा) चण्डा (चोरपुष्पी ) स्थौणेयक ( ग्रन्थिपर्ण) श्रीवेष्टक (गन्धाविरोजा ) चोच (कल्मीतज ) चोरक ( चोरपु- ज्वरातिसारे चिकित्साः। पीभेद) बालक (सुगन्धवाला ) गुग्गुल,सर्जरस ( राल ) तुरुष्क (शिलारस ) कुन्दुरुक ( कुन्दुरु खोटी बंगाली ) स्पृक्का ज्वरातिसारे पेयादिक्रमः स्यालयिते हितः (मालतीपुष्प ) अगर, उशीर ( खश ) भद्रादारु ( देवदारु ज्वरातिसारी पेयां वा पिबेत्साम्लां शृतां नरः॥१॥ पुन्नागकेशर (पुन्नागः पावेतीयो वृक्षविशेषस्तत्केशरम् )।' एला- प्रश्रिपीबलाबिल्वनागरोत्पलधान्यकी। दिको वातकफो निहन्याविषमेव च । वर्णप्रसादनः कण्डापिडि- ज्वरातिसारमें लंघन करनके अनन्तर पेया विलेपी आदिका काकाष्ठमाशनः" इति।
क्रमशः सेवन करना हितकर होता है। तथा ज्वरातिसारवालेको