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चक्रदत्तः।
[स्वस्थवृत्तान
भोजन और अजन प्रयुक्त करना चाहिये। तथा व्यायाम, उबटन वर्षाऋतु में पृथ्वीकी भाफ, मेघाँके बरसने और जलके
और धूमका प्रयोग करना चाहिये । शौचादिके लिये कुछ गुन-पाक हानेके कारण वातादिक दोष कुपित होते हैं । अतः गुना जल सेवन करना चाहिये। तथा स्नान कर कपूर, चंदन, ऋतु में समस्त साधारण तथा अमिदीपक पदार्थों का सेवन व अगर और केशरका लेप करना चाहिये । तथा पुराने यव, गेहूं, चाहिये। तथा आस्थापन बस्तिसे शुद्ध शरीर होकर पुराने धा शहद तथा कोयलोपर पकाया जांगल प्राणियोंका. मांस खाना बनाये गये रस, जांगलमांस, यूष, पुराना मध्धारिष्ट तथा अ चाहिये । और मुनक्का तथा शहद छोड़कर बनाये गये आसव, शका वर्षा हुआ अथवा कुएका जल गरमकर सेवन करना चा।' अरिष्ट तथा सीधु पीना चाहिये । तथा इस ऋतुमें स्त्रियोंका तथा और आति दुर्दिनमें (जब मेघ घेरे ही रहें) अम्ल, लवण. वनोंका आनंद लेना चाहिये । तथा भारी, गरम, चिकने और और शहद मिला हुआ सूखा भोजन करना चाहिये । तथ। मीठे व्रव्य तथा दिनमें सोना त्याग देना चाहिये ॥ २४-२७ ॥ ऋतुमें नदीका जल, सत्तुओंका मन्थ, दिनमें सोना, पा ग्रीष्मचर्या।
और धूप इनको त्याग देना चाहिये ॥३३-३६॥ मयूखैर्जगतः स्नेहं प्रीष्मे पेपीयते रविः।
शरचर्या । स्वादु शीतं द्रवं स्निग्धमन्नपानं तदा हितम् ॥२८॥
वर्षाशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः । शीतं सशर्करं मन्थं जाङ्गलान्मृगपक्षिणः।।
तप्तानामाचितं पित्तं प्रायः शरदि कुप्यति ।। ३ घृतं पयः सशाल्यन्नं भजन्ग्रीष्मे न सीदति ॥२८॥
तज्जयाय घृतं तिक विरेको रक्तमोक्षणम्। मद्यमल्पं न वा पेयमथवा सुबहूदकम् ।
तिक्तस्वादुकषायं च क्षुधितोऽन्नं भजेल्ला. मध्याह्ने चन्दनााङ्गः स्वप्याद्धारागृहे:निशि ॥३०॥
इक्षवः शालयो मुद्राः सरोऽम्भः क्वथित निशाकरकराकीर्णे प्रवाते सौधमस्तके। निवृत्तकामो व्यजनैः पाणिस्पर्शीः सचन्दनैः ॥३१॥
शरद्येतानि पथ्यानि प्रदोषे चेन्दुरश्मर सेव्यमानो भजेदास्यां मुक्तामगिविभूषितः।
शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि ' लवणाम्लकटूष्णानि व्यायाम चात्र वर्जयेत् ॥३२॥
तुषारक्षारसौहित्यदधितैलरसातपान् ।। ४० । ग्रीष्मऋतुमें सूर्य भगवान अपनी किरणों द्वारा संसारका स्नेह
तीक्ष्णमद्यदिवास्वप्नपुरोवातातपस्त्यिजेत् । खींच लेते हैं, अतः इस ऋतुमें मीठे, शीतल पतले तथा स्नेह
वर्षाऋतुमें कुछ शीतका अभ्यास रहता है, पर शर युक्त अन्नपान हितकर होते हैं । शक्कर व जल मिलाकर पतले सत्त. सहसा अ गरम हो जाते हैं । अतः सञ्चित पित्त कुरि जांगल प्राणियोंका मांस, घी, दूध और चावलका इस ऋतुमे |
|जाता है। उसकी शान्तिके लिये तिक्त घृत, रक्तमोक्ष सेवन करनेवाला दुःखी नहीं होता । मद्य पीना ही न चाहिये ।
विरेचन लेना चाहिये । और भूख लगनेपर तिक्त, मीठा, और यदि पीवे ही तो थोड़ा पीना चाहिये । और बहुत जल
| और हल्का अन्न खाना चाहिये । तथा ईखके पदार्थ, मिलाकर पीना चाहिये । मध्याह्नमें शरीरपर चन्दनका लेप कर | मूंग, तालाबका जल, गरम दूध और सायङ्काल चन्दा फुहारे चलते हुए घरमें सोना चाहिये, रात्रि में चन्द्रमाकी रोश- सेवन करना ये सब इस ऋतु लाभदायक है । और शर नीसे युक्त हवा लगनेवाली महलकी अटारीपर चन्दनके जलसे | तर, खशके पंखोंकी हवा खाते हुए मुक्ता मणिसे विभूषित |
चाहिये। तथा बर्फ, क्षार, तृप्तिपर्यंत भोजन, दही, तैल, कामका सेवन न करते हुए सोना चाहिये । नमकीन, खट्टे धूप, तीक्ष्ण मद्य, दिनमें सोना, पूर्वकी वायु और धूप कहुए और गस्म पदार्थ त्याग देने चाहियें । तथा व्यायाम न
देने चाहियें ॥ ३७-४०॥ करना चाहिये ॥ २८-३२॥
सामान्यतुचर्या । वर्षाचर्या ।
शीते वर्षासु चाद्यांस्त्रीन्वसन्तेऽन्त्यारसान्भ भूबाष्पान्मेघनिस्यन्दात्पाकादम्लाजलस्य च ।
स्वादून्निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् वर्षास्वग्निबले क्षीणे कुप्यन्ति पवनादयः॥ ३३ ॥ शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं धर्मघनान्तयोः॥ भजेत्साधारणं सर्वमूष्मणस्तेजनं च यत् ।
अन्नपान समासेन विपरीतमतोऽन्यथा । आस्थापनं शुद्धतनुर्जीण धान्यं कृतान्सान् ॥३४॥ नित्यं सर्वरसाभ्यासः स्वस्त्राधिक्यमृतावृत जाङ्गलं पिशितं यूषान्मध्वारष्टं चिरन्तनम् ।। ऋत्वोराद्यन्तसप्ताहावृतुसान्धरिति स्मृतः। दिव्यं कोपं शृतं चोम्भो भोजनं त्वतिदुर्दिने ॥३५॥ तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्र व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु ।
इत्युक्तमृतुसात्म्यं यच्चेष्टाहारव्यपाश्रयम् । नदीजलोदमन्थाहः स्वप्नायासातपस्त्यिजेत् ॥३६ ।। उपशेते यदौचित्यादोकसात्म्यं तदुच्यते ।