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चक्रदत्तः।
[ रसायना
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अम्लपित्त और अर्शको नष्ट करता तथा रसायन है । इसमें | मलिनं यद्भवेत्तञ्च क्षालयेत्केवलाम्भसा ।। १५९ ॥ आहार व विहारमें कोई परहेज नहीं है ॥ १३५-१५०॥ लौहपात्रेषु विधिना ऊर्वीभूतं च संहरेत् । शिलाजतुरसायनम् ।
वातपित्तकफन्नस्तु नि! हस्तत्सुभावितम् ॥ १६० ॥ हेमाद्याः सूर्यसन्तप्ताः स्रवन्ति गिरिधातवः ।
वीर्योत्कर्ष परं याति सवैरेकैकशोऽपि वा। जत्वाभं मृदु मृत्स्नाच्छं यन्मलं तच्छिलाजतु।१५१॥
प्रक्षिप्योद्धृतमावानं पुनस्तत्प्रक्षिपेद्रसे । अनम्नं चाकषायं च कटुपाकि शिलाजतु ।
कोणे सप्ताहमेतेन विधिना तस्य भावना ।।१६१॥ नात्युष्णशीतं धातुभ्यश्चतुर्यस्तस्य सम्भवः १५२॥
तुल्यं गिरिजेन जले चतुर्गुणे भावनौषधं काथ्यम् ।
तत्काथे पादांशे पूतोष्णे प्रक्षिपेगिरिजम् । हेम्नोऽथ रजतात्ताम्राद्वरं कृष्णायसादपि ।
तत्समरसतां यातं संशुष्कं प्रक्षिपेद्रसे भूयः ॥१६३ सोना आदि पर्वतके धातु सूर्यकी गरमीसे तपकर जो पूर्वोक्तेन विधानेन लौहैश्चूर्णीकृतैः सह । लाखके समान मृदु, चिकना और स्वच्छ मल छोड़ते हैं, वही |
तत्पीतं पयसा दद्यादीर्घमायुः सुखान्वितम् ॥१६४ "शिलाजतु" कहा जाता है । शिलाजतु खट्टा तथा कषैला नहीं | होता और सबरस रहते हैं। तथा पाकमें कडआ होता है। सोनेका शिलाजतु वातपित्त में, चान्दीका पित्तकफमें, तथा न अति गरम न अधिक ठण्ढा ही होता है। तथा सोना | ताम्रको कफमें और लोहेका शिलाजतु त्रिदोषमें हितकर है । चान्दी ताम्बा और लोहा इनसे वह निकालता है। इनमेंसे | उसकी प्रधान परीक्षा यह है कि अग्निमें छोड़नेसे लौहकिटके लोहसे निकलनेवाला ही उत्तम होता है ॥९५१ ॥ १५२॥ | समान विना धुआकर
समाम विना धुआँके जलता है । जल में छोडनेसे प्रथम तैरता
फिर डोरोंके समान पिघल कर नीचे बैठता है । जो शिलाजतु - शिलाजतुभेदाः।
| मलिन हो, उसे उष्ण जलमें घोल छानकर लौहपात्रमें रखना मधुरं च सतिक्तं च जवापुष्पनिभं च यत् ॥१५३॥ चाहिये । जो ऊपर तैरता हुआ जमें, उसे निकाल लेना चाहिये । विपाके कटु तिक्तं च तत्सुवर्णस्य निःस्रवम। वही शुद्ध शिलाजतु हुआ ( इसी विधिसे शिलाजतुके पत्थरोंसे राजतं कटुकं श्वेतं स्वादु शीतं विपच्यते ॥ १५४॥ म
भी शिलाजतु निकाली जाती है)। इसके अनन्तर वातपित्तकफ
नाशक दशमूल, तृणपञ्चमूल, पिप्पल्यादि द्रव्योंसे प्रत्येकसे अलग ताम्रान्मयूरकण्ठाभं तीक्ष्णोष्णं पच्यते कटु।
अलग अथवा मिलाकर भावना देनी चाहिये । इस प्रकार यत्तु गुग्गुलुसङ्काशं तिक्तकं लवणान्वितम्१५५|| शिलाजतुकी शक्ति अधिक बढ़ जाती है । एक द्रव द्रव्यमें विपाके कटु शीतं च सर्वश्रेष्ठं तदायसम्। छोड़कर घोटना चाहिये । फिर उसे धूपमें रखना चाहिये । द्रव गोमूत्रगन्धः सर्वेषां सर्वकर्मसु यौगिकः ।।१५६ ॥ सूख जानेपर दूसरे पात्रमें रखा हुआ गुनगुना कषाय छोडना रसायनप्रयोगेषु पश्चिमं तु विशिष्यते । | चाहिये । इस प्रकार जिन द्रवद्रव्योंसे भावना देनी हो, प्रत्येकसे सुवर्णसे निकला शिलाजतु मीठा, तिक्त, जवापुष्पके समान
सात भावना देनी चाहिये । भावनार्थ क्वाथ बनानेके लिये लाल, विपाकमें कडुआ तथा तिक्त होता है। चाँदीसे निकला |
| शिलाजतुके समान औषध ले चतुर्गुण जल मिलाकर क्वाथ करना शिलाजतु कडुआ, सफेद, मीठा तथा विपाकमें शीतल होता।
| चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर शिलाजतुमें है। ताम्रका शिलाजतु मयूरकण्ठके समान नील, चमकदार,
| मिलाना चाहिये और उस रसके सूख जानेपर और रस मिलाना तीक्ष्ण, गरम तथा विपाकमें कडुआ होता है । लौहसे निकला
चाहिये । इस प्रकार भावित शिलाजतु लौहभस्मके साथ हुआ शिलाजतु गुग्गुलुके वर्णका, तिक्त, नमकीन तथा
| दूधमें मिलाकर पीनेसे सुखयुक्त दीर्घ आयु प्रदान करता विपाकमें कडुआ तथा शतिल होता है । वही उत्तम होता है।
है ॥ १५७-१६४ ॥ सभी शिलाजतु गोमूत्र गंधयुक्त होते हैं तथा सब कामों के लिये
शिलाजतुगुणाः। प्रयुक्त हो सकते हैं, पर रसायनप्रयोगोंमें लौहज ही उत्तम
जराव्याधिप्रशमनं देहदाढर्यकरं परम् । होता है ॥ १५३-१५६ ॥
मेघास्मृतिकरं धन्यं क्षीराशी तत्प्रयोजयेत् ॥१६५॥ प्रयोगविधिः परीक्षा च ।
प्रयोगः सप्त सप्ताहात्रयश्चैकश्च सप्तकः । यथाक्रमं वातपित्ते श्लेष्मपिते कफे त्रिषु ॥ १५७ ॥ निर्दिष्टविविधस्तस्य परो मध्योऽवरस्तथा ॥१६६।। विशेषेण प्रशस्यन्ते मला हेमादिधातुजाः। मात्रा पलं त्वर्धपलं स्यात्कर्ष तु कनीयसी। लौह किट्टायते वहीं विधूमं दह्यतेऽम्भसि ॥ १५८ ॥ यह वृद्धावस्था तथा रोगको दूर करनेवाला, देहको दृढ सृणाद्यप्रे कृतं श्रेष्ठमधो गलति तन्तुवत् । करनेवाला तथा मेधा और स्मरणशक्तिको बढानेवाला है।