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(६८)
चक्रदत्तः ।
लेहाः ।
सशर्करा कामलिनां त्रिभण्डी
हिता गवाक्षी सगुडा स शुण्ठी ॥ २७ ॥ दाव सत्रिफला व्योषविडंगान्ययसो रजः । मधुसर्पिर्युतं लिह्यात्कामलापाण्डुरोगवान् ॥ २८ ॥ तुल्या अयोरजः पथ्याहरिद्राः क्षौद्रसर्पिषा । चूर्णिताः कामली लिह्याद् गुडक्षौद्रेण वाभयाम् २९ धात्रीलोहर जो व्योषनिशाक्षीद्राज्यशर्कराः । लढा निवारयन्त्याशु कामलामुद्धतामपि ॥ ३० ॥ कामलावालोंको शक्कर के साथ निसोधका चूर्ण अथवा गुड़ और सोंठके साथ इन्द्रायणकी जड़का चूर्ण खाना चाहिये । तथा दारूहल्दी, त्रिफला, त्रिकटु, वायविडंग, लौहभस्म सब समान भाग ले शहद घी मिलाकर कामला तथा पाण्डुरोगवालेको चाटना चाहिये। तथा लौहभस्म, हर्र, हल्दी सब समान भाग ले शहद, व घीके साथ अथवा केवल बड़ी हरेका चूर्ण गुड़ और शहदके साथ चाटना चाहिये । आमला, लौहभस्म, त्रिकटु, हल्दी, शहद, घी व शक्कर मिलाकर चाटने से कामला शीघ्र ही नष्ट होती है ।। २७-३० ॥
कुम्भकामलाचिकित्सा ।
दग्ध्वाक्षकाष्ठैर्मलमायसं तु गोमूत्रनिर्वापितमष्टवारान् । विचूर्ण्य लीढं मधुना चिरेण
कुम्भाह्वयं पाण्डुगदं निहन्ति ॥ ३१ ॥ लौह्रकिष्टको बहेड़ेकी लकड़ियोंसे तपाकर ८ बार गोमूत्रमें लेना चाहिये | फिर महीन चूर्णकर शहदके साथ चाटने से कामला - नामक पाण्डुरोग नष्ट होता है ॥ ३१ ॥
[ पाण्डुरोगा
| चूर्णकर सबके समान लौहभस्म मिलाकर अठ गुने गोमूत्रमें पकाना चाहिये । इसकी एक एक तोलाकी गोली बनाकर प्रतिदिन खाना चाहिये । इससे कामलावान् तथा पाण्डुरोगी शीघ्र ही आरोग्यतारूपी सुख पाते हैं ॥ ३३-३४ ॥
बुझा कुम्भ
हलीमक चिकित्सा |
पाण्डुरोगक्रियां सर्वां योजयेच हलीमके | कालायां च या दृष्टा सापि कार्या भिषग्वरैः || ३२॥ पाण्डुरोग तथा कामलाकी जो चिकित्सा कही गयी है, वही हलीमकमें भी करनी चाहिये ॥ ३२ ॥
मण्डूरवटकाः ।
त्र्यूषणं त्रिफला मुस्तं विडंग चव्यचित्रकौ । दात्व माक्षिको धातुर्ग्रन्थिकं देवदारु च ॥ ३५ ॥ एषां द्विपलिकाभागांश्चूर्ण कृत्वा पृथक् पृथक् । मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाच्छुद्धमञ्जनसन्निभम् ॥ ३६ ॥ मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्वा तस्मिंस्तु प्रक्षिपेत्ततः । उदुम्बरसमान्कुर्याद्वटकांस्तान्यथाग्नितः ॥ ३७ ॥ उपयुञ्जीत तक्रेण सात्म्यं जीर्णे च भोजनम् । मण्डूका ह्येते प्राणदाः पाण्डुरोरोगिणाम् ||३८ ॥ कुष्ठान्यजरकं शोथमूरुस्तम्भकफामयान् । अर्शासि कामलामेहान्प्लीहानं शमयन्ति च ॥३९॥ निर्वाप्य बहुशो मूत्रे मण्डूरं ग्राह्यमिष्यते । प्राहयन्त्यष्टगुणितं मूत्रं मण्डूरचूर्णतः ॥ ४० ॥
सोंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, त्रिफला, नागरमोथा, वायविडंग, चव्य, चीतकी जड़, दारूहल्दी, दालचीनी, सोनामक्खीकी भस्म, पिपरामूल, देवदारु प्रत्येक ८ तोले ले चूर्ण करना चाहिये । चूर्णसे द्विगुण मण्डूर मिलाकर अठगुने गोमूत्रमें पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर चूर्ण छोड़कर एक तोलाकी गोली बना लेना चाहिये । ओषधि पच जानेपर महके साथ हितकर अन्न भोजन करे । यह लड्डू पाण्डुरोगवालेको प्राणदायक होते हैं । यह कुष्ठ, अजीर्ण, सूजन, ऊरुस्तम्भ, कफके रोग, अर्श, कामला, प्रमेह, प्लीहाको शान्त करते हैं। मण्डूर, गोमूत्रमें | अनेक बार बुझाया हुआ लेना चाहिये, तथा पकानेमें मण्डूर - अष्टगुण गोमूत्र छोड़कर पकाना चाहिये और आसन्न पाक होनेपर चूर्ण मिलाना चाहिये ॥ ३५-४० ॥
१ कुछ वैद्यों का मत है कि यहां पर लौह प्रधान है, अतः लोहसे ही अठगुना गोमूत्र लेकर प्रथम लोह गोमूत्रमें पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर चूर्ण मिलाकर गोलियां बनानी | चाहियें। क्योंकि चूर्ण मिलाकर पकानेसे चूर्ण जल जायगा । पर कुछ बैद्योंका मत है कि चूर्णके समान लोहभस्म मिलाकर सबसे अठगुने गोमूत्रमें पकाना चाहिये । यही मत उचित प्रतीत होता है । चक्रपाणिजी के शब्दोंसे यही अर्थ निलकता है । पर शिवदासजीने दोनों मतों का निदर्शन किया है, अपना निश्चय नहीं लिखा । तथा यहां द्रवद्वैगुण्य नहीं होता, इसकी मात्रा
विडंगाद्यं लौहम् ।
विडंग मुस्ताफला देवदारुषडूषणैः । तुल्यमात्रमयश्चूर्ण गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥ ३३ ॥ तैरक्षमात्रां गुडिकां कृत्वा खादद्दिने दिने । कामलापाण्डुरोगार्तः सुखमापद्यतेऽचिरात् ॥ ३४ ॥ वायविडंग, नागरमोथा, त्रिफला, देवदारु, षडूषण ( पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, कालीमिर्च ) सब समान भाग | वर्तमानकालके लिये ४ रतीसे १ माशेतक है ॥