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(२७८)
चक्रदत्तः।
[असृग्दराा
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पानसे मेधा, बुद्धि, स्मरणशक्ति बढाता, शिरोरोगों तथा
रसाञ्जनादियोगः। समस्त वातरोगोंको नष्ट करता और मन्या, कर्ण, शिर व नेत्रकी
रसाजन तण्डुलीयस्य मूलं पीड़ा तथा अपस्मार, विष, वातरोग, श्वास, विषमज्वर और
क्षौद्रान्वितं तण्डुलतोयपीतम् । कासको विनष्ट करता है ॥६०-६३ ॥
असृग्दरं सर्वभवं निहन्ति इति शिरोरोगाधिकारः समाप्तः ।
. श्वासं च भार्डी सह नागरेण ।। ७॥
रसौंत, चौराईकी जड़को पीस शहद मिला चावलके जलके अथामृग्दराधिकारः
साथ पीनसे सन्निपातप्रदर नष्ट होता तथा इसीमें भारङ्गी और
सोंठ मिलाकर सेवन करनसे श्वास भी नष्ट होता है॥७॥ सामान्याचिकित्सा।
विविधा योगा। पना सौवर्चलाजाजी मधुकं नीलमुत्पलम् । दशमूलं समुद्धृत्य पेषयेत्तण्डुलाम्बुना। पिबेरक्षौद्रयुतं नारी वातासृग्दरपीडिता ॥१॥ एतत्पीत्वा व्यहान्नारी प्रदरात्परिमुच्यते ॥८॥ पिबदेणेयकं रक्तं शर्करामधुसंयुतम् ।
क्षौद्रयुक्त फलरसं काष्ठोदुम्बरजं पिबेत् । वासस्वरसं पैत्ते गुडूच्या रसमेव वा ॥२॥ असृग्दरविनाशाय सशर्करपयोऽन्नभुक् ॥ ९॥ रोहीतकान्मूलकल्कं पाण्डुरेऽमृग्दरे पिबेत् ।। प्रदरं हन्ति बलाया मूलं दुग्धेन मधुयुतं पीतम् । जलेनामलकाद्वीजकल्कं वा ससितामधु ॥३॥ कुशवाटचालकमूलं तण्डुलसलिलेन रक्ताख्यम् । धातक्याश्चाक्षमात्रं वा आमलक्या मधुद्रवम् । शमयति मदिरापानं तदुभयमपि रक्तसंज्ञशुक्लाख्यो काकजानुकमूलं वा मूलं कापासमेव वा ॥४॥ गुडेन बदरीचूर्ण मोचमामं तथा पयः। पाण्डुप्रदरशान्त्यर्थ पिबत्तण्डुलवारिणा।
पीता लाक्षा च सघृता पृथक्प्रदरनाशना॥११॥ अशोकवल्कलक्काथशृतं दुग्धं सुशीतलम् । । दशमूल लेकर चावलके जलके साथ पीसकर पीनेसे ३ दिनमें यथाबलं पिबेत्प्रातस्तीवामृग्दरनाशनम् ॥ ५॥ स्त्री प्रदरसे मुक्त हो जाती है । अथवा कटूमरके शहद साथ मिलाकर वातज प्रदरसे पीड़ित स्त्री शहदके साथ काले नमक जीरा, पीना चाहिये। तथा शक्कर, दूध और भातका पथ्य रखना चाहिये। मौरेठी व नीलोफरके चूर्णको दहीमें मिलाकर खावे । पित्तजमें इसी प्रकार खरेटीकी जड़के चूर्णको शहदमें मिलाकर दूधके साथ शक्कर और शहद मिलाकर हरिणका रक्त पीवे । अथवा अडूसेका पीनेसे प्रदर नष्ट होता है। तथा कुश और खरेटीकी जडके स्वरस अथवा गुर्चका रस पीवे । कफज प्रदरमें रोहीतककी जड़का चूर्णको चावलके जलके साथ पीनेसे रक्तप्रदर शान्त होता है । कल्क जल मिलाकर पीवे । अथवा आंवलेके बीजोंका कल्क शराब पाना लाल तथा सफेद दोनों प्रदरोंको नष्ट करता है। शक्कर व शहद मिलाकर पीवे अथवा धायके फूलोंका रस अथवा गुड़के साथ बेरकी जड़के चूर्णका सेवन करनेसे अथवा केला आंवलेका रस १ तोलेकी मात्रासे शहद मिलाकर पीने । अथवा और कच्चे दूधके सेवनसे अथवा घीके साध लाख पीनेसे प्रदर काकजंघाकी जड़ अथवा कपासकी जड़ चावलके जलके साथ | नष्ट होता है ॥८-११॥ पीले प्रदरकी शान्तिके लिये पीवे । तीव्र रक्तप्रदरकी शान्तिके लिये अशोककी छालसे सिद्ध दूध ठण्ढा कर बलके अनुसार प्रात:
सामान्यनियमः। काल पीवे ॥ १-५ ॥
रक्तपित्तविधानेन प्रदरांश्चाप्युपाचरेत् । दाादिकाथः।
अमृग्दरे विशेषेण कुटजाष्टकमाचरेत् ।। १२॥
रक्तपित्तविधानसे प्रदरकी चिकित्सा करनी चाहिये । दारिसाअनवृषाब्दकिरातबिल्व
तथा रक्तप्रदरमें विशेषकर कुटजाष्टकका प्रयोग करना भल्लातकैरवकृतो मधुना कषायः।
चाहिये ॥१२॥ पीतो जयत्यतिबलं प्रदरं सशूलं पीतासितारुणविलोहितनीलशुक्लम् ॥६॥
पुष्यानुगचूर्णम् ।
पाठाजम्ब्वाम्रयोर्मध्यं शिलाभेदरसाजनम् । दारुहल्दी, रसौत, अडूसा, नागरमोथा, चिरायता, बेल और भिलावेका क्वाथ ठण्डा कर शहद मिला पीनेसे शूलयुक्त, अति
अम्बष्ठकी मोचरसः समङ्गापद्मकेशरान् ॥ १३॥ बलवान्, पीला, काळा, लाल, नीला सफेद तथा अरुण प्रदर
वत्सकातिविषामुस्तं बिल्वं लोधं सगैरिकम् । बन्द होता है ॥ ६॥
कट्फलं मरिचं शुण्ठी मृद्वीका रक्तचन्दनम्॥१४॥