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धिकारः ]
भाषाटीकोपेतः ।
१७ ॥
कट्वङ्गवत्सकानन्ताधातकी मधुकार्जुनम् । पुष्येणोद्धृत्य तुल्यानि ऋणचूर्णानि कारयेत् ॥ १५ तानि क्षौद्रेण संयोज्य पाययेत्तण्डुलाम्बुना । असृग्दरातिसारेषु रक्तं यच्चोपवेश्यते ॥ १६ ॥ दोषागन्तुकृता ये च बालानां तांश्च नाशयेत् । योनिदोषं रजोदोषं श्वेतं नीलं सपीतकम् ॥ स्त्रीणां श्यावारुणं यच्च तत्प्रसह्य निवर्तयेत् । चूर्ण पुष्यानुगं नाम हितमात्रेयपूजितम् ॥ १८ ॥ पाढ, आम और जामुनकी मींगी, पाषाणभेद, रसौत अम्ब की ( किसीके मत से पाढ़ ही डबल करना चाहिये । क्योंकि अम्बष्ठा पाढ़का नाम है। कोई सनके बीज छोड़ते हैं। पर मेरे विचारसे तो पाढ़ ही दूनी छोड़ना ) मोचरस, लज्जालुके बीज, कमलका केशर, कुड़ेकी छाल, अतीस, नागरमोथा, बेल, लोध, गेरू, कैफरा, काली मिर्च, सोंठ, मुनक्का, लाल चन्दन, सोना पाढा, इन्द्रयव, यवासा, धायके फूल, मौरेठी व अर्जुनकी छाल, सब चीजें पुष्यनक्षत्रमें लाकर महीन चूर्ण करना चाहिये । उस चूर्णको शहद में मिलाकर चावलके जलसे पीना चाहिये । यह रक्तप्रदर, रक्तातीसार, अतीसार और बालकोंके दोषज तथा आगन्तुक अतिसारोंको नष्ट करता है । त्रियों के योनिदोष, रजोदोष, सफेद, नीले, पीले, आसमानी और लालिमा लिये हुए प्रदरोंको बलात् नष्ट करता है। यह " पुष्यानुग चूर्ण ” अत्यन्त हितकर आत्रेय महर्षिसे प्रशंसित है ॥ १३-१८॥
मुद्राद्यं घृतम् । मुद्रमाषस्य निर्यूहे रास्नाचित्रकनागरैः ।
सिद्धं सपिप्पलीबिल्वैः सर्पिः श्रेष्ठमसृग्दरे ॥ १९॥ मूंग और उड़द क्वाथमें रासन, चीतकी जड़, सोंठ, छोटी पीपल और बेलके कल्कको छोड़कर सिद्ध घृत रक्तप्रदर में हितकर है ॥ १९ ॥
( २७९ )
तरुणी चाल्पपुष्पा या या च गर्भ न विन्दति । अहन्यहनि च स्त्रीणां भवति प्रीतिवर्धनम् । शीतकल्याणकं नाम परमुक्तं रसायनम् ॥ २५ ॥
कुमुद ( कमलभेद ) पद्माख, खश, गेहूं, लाल चावल, जड़, नीलोफर, ताड़की बाली, विदारीकन्द, शतावर, शालपर्णी, मुद्रपर्णी, क्षीरविदारी, खम्भार, मौरेठी, खरेटेकी जड़, कंघीकी जीवक, त्रिफला, खीरा बीज तथा कच्चा केला इनका कल्क प्रत्येक २ तोला, गायका दूध ६ सेर ३२ तो०, जल ३ सेर ३ छ०९ तो०, घी १२८ तो० मिलाकर पकाना चाहिये | सिद्ध होने पर उतार छान सेवन करना चाहिये। यह प्रदर, रक्त. पित्त, रक्तगुल्म, हलीमक, अनेक प्रकारके अम्लपित्त, कामला, वातरक्त, अरोचक, ज्वर, जीर्ण ज्वर, पाण्डुरोग, नशा तथा चक्करको नष्ट करता है। जिस स्त्रीको मासिक धर्म कम होता है, तथा जिन्हें गर्भ नहीं रहता, उन्हें पिलाना चाहिये । इससे स्त्रियों की प्रसन्नता बढ़ती है। यह " शीतकल्याणक " नाम घृत परम रसायन है | २०-२५ ॥
शतावरीघृतम् ।
शतावरीरप्रस्थं क्षोदयित्वाऽवपीडयेत् । घृतप्रस्थसमायुक्तं क्षीरद्विगुणितं भिषक् ॥ २६॥ अत्र कल्कानिमान्दद्यात्स्थूलोदुम्बर संमितान् । जीवनीयानि यान्यष्टौ यष्टिपद्मकचन्दनम् ॥ २७ ॥ श्वदंष्ट्रा चात्मगुप्ता च बला नागबला तथा । शालपर्णी पृश्निपर्णी विदारी शारिवाद्वयम् ||२८|| शर्करा च समा देया काश्मर्योश्च फलानि च । सम्यक् सिद्धं तु विज्ञाय तद् घृतं चावतारयेत् ॥ २९ ॥ रक्तपित्तविकारेषु वातपित्तकृतेषु च ।
वातरक्तं क्षयं श्वासं हिक्कां कासं च दुस्तरम् ॥३०॥ अङ्गदाहं शिरोदाहं रक्तपित्तसमुद्भवम् । असृग्दरं सर्वभवं मूत्रकृच्छ्रं सुदारुणम् । एतान् रोगाशमयति भास्करस्तिमिरं यथा ॥ ३१ ॥
शीतकल्याणकं घृतम् । कुमुदं पद्मकोशीरं गोधूमो रक्तशालयः । मुद्रपर्णी पयस्या च काश्मरी मधुयष्टिका ॥ २० ॥ बलातिबलयोर्मूलमुत्पलं तालमस्तकम् । विदारी शतमूली च शालपर्णी सजीवका ॥ २१ ॥ त्रिफला त्रापुषं बीजं प्रत्ययं कदलीफलम् । एषामर्धपलान्भागान्गव्यं क्षीरं चतुर्गुणम् ॥ २२ ॥ पानीयं द्विगुणं दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । प्रदरे रक्तपित्ते च रक्तगुल्मे हलीमके ॥ २३ ॥ बहुरूपं च यत्पित्तं कामलावातशोणिते ।
ताजी शतावरको कूटकर १२८ तो० रस निकालना चाहिये । इसमें घी १२८ तोला, दूध २५६ तो० तथा जल १२८ तो० और जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, मौरेठी, चन्दन, गोखुरू, कौंच के बीज, खरेटी, गंगेरन, सरिवन, पिठिवन, विदारीकन्द, सारिवा, काली सारिवा, शक्कर, और खम्भारके फल प्रत्येक १ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना चाहिये। तैयार हो जानेपर उतारकर छान लेना चाहिये । इसका रक्तपित्तके रोग, वातपित्तके रोग, वातरक्त, क्षय, श्वास,
अरोचके ज्वरे जीर्णे पाण्डुरोगे मदे भ्रमे ॥ २४ ॥ हिक्का, कास, अङ्गकी जलन, रक्तपित्तसे उत्पन्न शिरकी जलन,