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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(२७७)
सूर्यावर्तकी ही विधि स्वेदको छोड़कर शंखकमें करनी कर्णनासाक्षिजिह्वास्यगलरोगविनाशनम् । चाहिये । और क्षीरजन्य घृतका पान तथा नस्य देना हित
मयूराद्यमिदं ख्यातमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥ ५६ ॥ कर है ॥ ४८ ॥
आखुभिः कुक्कुटैर्हसैः शशैश्चापि हि बुद्धिमान् । लेपाः ।
कल्केनानेन विपचेत्सर्पिरूगदापहम् ॥ ५७ ॥ शतावरी कृष्णतिलान्मधुकं नीलमुत्पलम् ।।
दशमूलादिना तुल्यो मयूर इह गृह्यते ।
अन्ये त्वाकृतिमानेन मयूरग्रहणं विदुः।। ५८॥ मूवी पुनर्नवां चापि लेपं साध्ववतारयेत् ॥ ४९ ॥ शीततोयावसेकांश्च क्षीरसेकांश्च शीतलान् । दशमूल १२ तोला, खर
दशमूल १२ तोला, खरेटी, रासन, मौरेठी प्रत्येक १२ कल्कैश्च क्षीरिवृक्षाणां शङ्खकस्य प्रलेपनम् ॥५०॥ तोला और पखने, पित्त, आन्ते, विष्ठा, पैर और मुखरहित एक
शतावरी, काले तिल, मौरेठी नीलोफर, मूर्वा और पुनर्नवाका | मयूर जलमें पकाना चाहिये । फिर इसी क्वाथमें एक प्रस्थ घृत, लप करना चाहिये। तथा शीतल जलका सिञ्चन अथवा शीतल | समान भाग दूध तथा मधुर औषधियों (जीवनीय गण ) का दूधका सिञ्चन तथा दूधवाले वृक्षोंके कल्कसे शंखको लेप करना।
प्रत्येकका १ तोल कल्क मिलाकर पकाना चाहिये । यह घृत शिरो चाहिये ॥ ४९ ॥५०॥
रोग, आर्दत, कान, नाक, नेत्र, जिह्वा, मुख, व गलेके रोग
यहांतक कि जत्रुके ऊपरके समस्त रोगोंको नष्ट करता है। इसी शिराव्यधः।
प्रकार मूसे, कुक्कुट, हंस और खरगोशके मांसरस तथा क्रौञ्चकादम्बहंसानां शरायोः कच्छपस्य च ।। | मधुरसंज्ञक औषधियोंके कल्कके साथ शिरोरोगनाशक घी पकाना रसैः संविहितस्याथ तस्य शङ्खकसन्धिजाः॥५१॥ चाहिये । इसमें दशमूलादिके समान "मयूर" लेना चाहिये । कुछ ऊध्र्व तिस्रः शिराः प्राज्ञो भिन्द्यादेवन ताडयेत । आचार्य आकृतिमान अर्थात् एकवचन निर्देशात् १ लेते हैं। इन
घृतोंका नस्य लेनी चाहिये ॥५४-५८॥ क्रौञ्च, कादम्ब, हँस, शरारी और कच्छपके मांसरसोंका | सेवन कराकर शंखक सन्धिके ऊपरकी ३ शिराओंका वेध कर
प्रपौण्डरीकाद्यं तैलम् देना चाहिये । पर ( वेध करते समय नियमानुकूल शिरा ताड़ित की जाती है ) पर यह शिराताडन न करना | प्रपीण्डरीकमधुकपिप्पलीचन्दनोत्पलैः । चाहिये ॥५१॥
सिद्धं धात्रीरसे तैलं नस्येनाभ्यञ्जनेन वा ।
सर्वानूर्ध्वगदान्हन्ति पलितानि च शीलितम् ॥५९॥ शिरःकम्पचिकित्सा। शिरःकम्पेऽमृतारास्नाबलास्नेहसुगन्धिभिः ॥५२॥..
पुण्डरिया, मौरेठी, छोटी पीपल, चन्दन व नीलोफरके साथ
आंवलेके रसमें सिद्ध तेलका नस्य लेनसे समस्त शिरके रोग तथा स्नेहस्वेदादि वातघ्नं शिरोबस्तिश्च शस्यते। वलक
पलित नष्ट होते हैं ॥ ५९ ॥ शिरःकम्पमें गुर्च, रासन, खरेटी, स्नेह और सुगंधित पदाथोंका सेवन तथा वातघ्न स्नेहन, स्वेदन और शिरोवस्ति
महामायूरं घृतम् । हितकर है ॥५२॥
शतं मयूरमांसस्य दशमूलबलातुलाम् । यष्टयाचं घृतम् ।
द्रोणेऽम्भसःपचेक्षुत्त्वा तस्मिन्पादस्थिते ततः ६०॥ यष्टीमधुबलारास्नादशमूलाम्बुसाधितम् ।।
निषिच्य पयसो द्रोणं पचेत्तत्र घृताढकम् । मधुरैश्च घृतं सिद्धमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥५३॥
प्रपौण्डरीकवक्तिीवनीयैश्च भेषजैः ॥ ६१॥ मौरेठी, खरेटी, रासन, व दशमूलके काढे और मधुर |
मेधाबुद्धिस्मृतिकरमूर्ध्वजत्रुगदापहम् । औषधियोंके कल्कसे सिद्ध घृत सिरके रोगोंको नष्ट करता
मायूरमेतन्निर्दिष्टं सर्वानिलहरं परम् ॥ ६२॥ मन्याकर्णशिरोनेत्ररुजापस्मारनाशनम् ।
विषवातामयश्वासविषमज्वरकासनुत् ॥ ६३ ।। मयूरायं घृतम् ।
मयुरका मांस ५ सेर, दशमूल मिलित २॥ सेर, खरेटी २॥ दशमूलबलारानामधुकलिपलैः सह ।
सेर, जल २५ सेर ९ छ० ३ तोलामें पकाना चाहिये, चतुर्थांश मयूरं पक्षपित्तान्त्रशकृत्पादास्यवर्जितम् ॥ ५४॥ रहनेपर उतार छानकर दूध २५ सेर ४८ तो०, घी ६ सेर ३२ जले पक्त्वा घृतप्रस्थं तस्मिन्क्षीरसमं पचेत् । तो०, प्रपौंडरीकादिक औषधियों तथा जीवनीयगणकी औषधि. मधुरैः कार्षिकैः कल्कैःशिरोरोगार्दितापहम् ॥५५॥ योंका कल्क छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घी नस्य तथा