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धिकारः] भाषाटीकोपेतः।
(१८७) मन्च पुनर्नवावलेहः ।
प्रस्थार्धमात्रं मधुनः सुशीते पुनर्नवामृतादारुदशमूलरसाढके ।
किंचिच्च चूर्णादपि यावशूकात् । आईकस्वरसप्रस्थे गुडस्य तु तुलां पचेत् ॥ ३९ एकाभयां प्राश्य ततश्च लेहातसिद्धं व्योषचव्यलात्वपत्रैः कार्षिकैः पृथक् । च्छुक्तिं निहन्ति श्वयधुं प्रवृद्धम् ।। ४७ ॥ चूर्णीकृतैः क्षिपेच्छीते मधुनः कुडवं लिहेत् ॥४०॥ कासज्वरारोचकमेहगुल्मान् लेहः पौनर्नवो नाम शोथशूलनिषूदनः।
प्लीहत्रिदोषोद्भवपाण्डुरोगान् । श्वासकासाऽरुचिहरो बलवर्णाग्निवर्धनः ॥ ४१॥ कार्यामवातामृगम्लपित्तं पुनर्नवा, गुर्च, देवदारु व दशमूलके एक आढक क्वाथ
वैवर्ण्यमूत्रानिलशुक्रदोषान् ॥ ४८॥ अदरखके १ प्रस्थरसमें गुड़ ५ सेर मिलाकर पकाना चाहिये । लेह अत्र व्याख्यान्तरं नोक्तं तैयार होजानेपर त्रिकटु, चव्य, इलायची, दालचीनी और व्याख्या पूर्वव यच्छुभा ॥ ४९॥ तेजपातका चूर्ण प्रत्येक १ तोला छोड़ना चाहिये। तथा उतारकर ठण्ढा हो जानेपर शहद १६ तोले छोड़ना चाहिये । यह यह तथा पूर्वोक्त दशमूल हरीतकी दोनों एक ही हैं, अत: "पुनर्नवावलेह शोथ, शुल, श्वास, अरुचिको नष्ट करता तथा विशेष लिखनेकी आवश्यकता नहीं । इसकी एक हरै खाकर २ "बल, वर्ण व अग्निको बढ़ाता है ॥ ३९-४१॥
तो० अवलेह चाटना चाहिये । यह सूजन, कास, ज्वर, अरो
चक, प्रमेह, गुल्म, प्लीहा, त्रिदोषज, पांडुरोग, दुर्बलता, आमदशमूलहरीतकी।
वात, रक्तदोष, अम्लपित्त, वैवर्ण्य तथा मूत्रवायु और वीर्य
दोषों को नष्ट करता है ॥ ४६-४९॥ दशमूलकषायस्य कंसे पथ्याशतं पचेत् । तुलां गुडाद् घने दद्याद्वयोषक्षारं चतुःपलम् ॥४२॥ अरुष्करशोथचिकित्सा। त्रिसुगन्धं सुवर्णाशं प्रस्थाध मधुनो हिमे ।
लेपोऽरुष्करशोथं निहन्ति तिलदुग्धनवनीतः। दशमूलीहरीतक्यः शोथान्हन्युः सुदारुणान् ॥४३॥/
तत्तरुतलमृद्भिर्वा शालदलैर्वा तु न चिरेण ॥५०॥ ज्वरारोचकगुल्माशेमेहपाण्डूदरामयान् । प्रत्येकमेककर्षाशं त्रिसुगन्धमिती भवेत् ॥४४॥
भिलावांकी सूजनको तिल, दूध तथा मक्खनका लेप अथवा कसहरीतकी चैषा चरके पठयतेऽन्यथा।
भिलावेके वृक्षके नीचेकी मट्टीका लेप अथवा शालके पत्तोंका
लप नष्ट करता है ॥५०॥ एतन्मानेन तुल्यत्वं तेन तत्रापि वर्ण्यते ॥ ४५ ॥
विषजशोथचिकित्सा। दशमूलके एक आढक क्वाथमें १०० हर तथा गुड़ ५ सेर | छोड़कर पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर त्रिकटु तथा जवा- शोथे विषनिमित्ते तु विषोका संमता क्रिया ॥५१॥ खारका मिलित चूर्ण १६ तो० दालचीनी, तेजपात, इलायची| विषजशोथमें विषोक्त चिकित्सा करनी चाहिये ॥५१॥ प्रत्येक १ तो० छोड़ना चाहिये । तथा ठण्ढा हो जाने पर मधु ३२ तो० छोड़ना चाहिये । यह " दशमूल हरीतकी" कठिन |
शोथे वानि । शोथोंको नष्ट करती तथा ज्वर, अरोचक, गुल्म, अर्श, प्रमेह,। ग्राम्यानूपं पिशितलवणं शुष्कशाकं नवान्नं पाण्ड और उदररोगोंको नष्ट करती है। इसीको चरकमें “कंस|
गोडं पैष्टं दधि सकृशरं विज्जलं मद्यमम्लम् । हरीतकी" के नामसे लिखा है। वहां भी ऐसा ही मान है।। ( इसमें १०० हरें प्रथम क्वाथ बनाते ही छोड़
शुष्कं मासं समशनमथो गुर्वसात्म्यं विदाहि
देनी चाहिये, क्वाथ हो जानेपर हरों को भी निकाल लेना चाहिये
स्वप्नं चाह्नि श्वयथुगवान्वर्जयेन्मैथुनं च ॥ ५२॥ और इन्हीं हरोंको क्वाथके साथ पुनः पकाना चाहिये)४२-४५| ग्राम्य तथा आनूप प्राणियोंके मांस, नमक, सुखे शाक, नवीन
अन्न, गुड़ तथा पिठ्ठिका मद्य, दही, खिचड़ी, विजल (दहीभेद) सहरीतकी।
मद्य, खट्टे पदार्थ, सूखे मांस, गुरु, असात्म्य तथा विदाही द्विपञ्चमूलस्य पचेत्कषाये
पदाथोंका सेवन, दिनमें सोना तथा मैथुन शोथवालेको त्याग कंसेऽभयानां च शतं गुडाश्च ।
देना चाहिये ॥५२॥ लेहे सुसिद्धे च विनीय चूर्ण
इति शोथाधिकारः समाप्तः। व्योषत्रिसौगन्ध्यमुपस्थिते च ॥ ४६॥