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धिकारः ]
वातकृतः पित्तकृतः सर्वान् कट्वम्लतिक्तककषायान् । तत्क्षणविनाशहेतून् मैथुनकोपश्रमान्दूरे || १०८ ॥
भाषाटीकोपेतः ।
फलशाकप्रयोगः ।
इस रसायनका सेवनकर ऊपरसे दूध अथवा जल पीना चाहिये । ( अनुपानकी मात्रा के सम्बन्ध में शिवदासजीने योग रत्नाकरकारका समर्थन किया है जो इस प्रकार है- " अनुपानं बुधाः प्राचतुःषष्टिगुणं सदा "। पर और आचार्य लोहसे पञ्चगुण ही कहते हैं, वह बहुत कम है) इसके अनन्तर नागरमोथाको चबाकर रस पी जाना चाहिये । कल्क बाहर फेंक देना चाहिये । फिर आचमन (श्टतशीत अथवा इंसोदक जलसे ) कर कर्पूरयुक्त पान खाना चाहिये । लौह सेवन कर न अधिक बैठना चाहिये न अधिक बातचीत करनी चाहिये । न अधिक खड़ाही रहना चाहिये । अत्यन्त वायु, शीत, धूप, सवारी, स्नान, मूत्रपुरीषादिके वेगका रोकना, अकाल भोजन तथा वातपित्तको बढानेवाले कटु,
शृङ्गाटकफलकशेरुकदलीफलतालनारिकेलादि । अन्यदपि यच्च वृष्यं मधुरं पनसादिक ज्यायः ११३॥ केबुकता डकरीरान्वार्ताकुपटोलफलदलसमठान् । मुद्द्रमसूरेक्षुरसाञ्शंसन्ति निरामिषेष्वेतान् ॥ ११४॥ शाकं प्रयमखिलं स्तोकं रुचये तु वास्तुकं दद्यात् । विहितनिषिद्धादन्यन्मध्यमकोटिस्थितं विद्यात् १९५ सिंघाडा, कशेरू, केला, ताड, नरियल तथा दूसरे भी मधुर तथा वाजीकर कटहल आदि खाना चाहिये, तथा नाडी, ताडकी करीर ( नवीन अंकुर ) बैंगन, परवलके फल, समठशाक तथा परवलकी पत्तीका शाक तथा मूंग मसूर और ईखके रसका निरामिष भोजियोंको उपयोग करना चाहिये । इसके अतिरिक्त कोई शाक न खाना चाहिये । रुचिके लिये थोड़ा बथुवा खाना
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अम्ल, तिक्त, कषायरस, मैथुन, क्रोध और थकावट आदि चाहिये । जो पदार्थ कहे गये अथवा जिनका निषेध किया त्याग देना चाहिये । क्योंकि ये तत्काल विनाशके कारण हो गया, उनको छोड़कर शेष मध्य कोटिमें समझना जाते हैं ॥ १०५-१०८ ॥ चाहिये ॥ ११३ - ११५ ॥
कोष्ठबद्धताहरव्यवस्था |
तप्तदुग्धानुपानं प्रायः सारयति बद्धकोष्ठस्य । अनुपीतमम्बु यद्वा कोमलफलनारिकेरस्य ॥ ११६॥ यस्य न तथा सरति स यवक्षारं जलं पिबेत्कोष्णम् । कोष्णत्रिफलाकाथसनाथं क्षारं ततोऽप्यधिकम् ११७ चाहिये तथा कोमल नारयलके फलके जलसे भी दस्त साफ वद्धकोष्ठ (कब्जियत) वालोंको गरम दूधका अनुपान देना आते हैं । जिसे इस प्रकार भी दस्त न आवें, उसे जवाखार मिलाकर गुनगुना जल पिलाना चाहिये । अथवा त्रिफला के काथ में जवाखार मिलाकर पीना चाहिये । यह भी अधिक गुण करता है ॥ ११६ ॥ ११७ ॥
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मात्रावृद्धिहासप्रकारः ।
श्रीणि दिनानि समं स्यादह्नि चतुर्थे वर्धयेत्क्रमशः । यावश्चाष्टममाषं न वर्धयेत्पुनरितोऽप्यधिकम् । ११८ ॥ आदौ रक्तिद्वितयं द्वितीयवृद्धी' तु रक्तिकात्रितयम् । रक्तिपञ्चकपञ्चकमत ऊर्ध्व वर्धयेन्नियतम् ॥ ११९ ॥ वात्सरिककल्पपक्षे दिनानि यावन्ति वर्धितं प्रथमम् । तावन्ति वर्षशेषे प्रतिलोमं ह्रासयेत्तदयः ॥ १२० ॥ तेष्वष्टमाषकेषु प्रातर्माषद्वयं समश्नीयात् । सायं च तावदहोर्मध्ये मासद्वयं शेषम् ॥ १२१ ॥ प्रथम तीन दिन समान मात्रा लेनी चाहिये । फिर चौथे दिनसे क्रमशः बढ़ाना चाहिये, जबतक ८ भाषा ( वर्तमान ६ माषा) न हो जाय। इससे अधिक न बढ़ाना चाहिये । प्रथम
भोजनादिनियमः ।
शितं तदयः पश्चात्पततु न वा पाटवं छद्म प्रथताम् । आर्तिर्भवति न वान्त्रं कूजति भोक्तव्यमव्याजम् । १०९ ॥
उस लौहका सेवनकर लेनेपर वह कहीं गिर न जावै, ऐसी निपुणता करनी चाहिये । भोजन ऐसा करना चाहिये कि जिससे न आन्तोंमें कुडकुडाहट हो, न पेटमें पीड़ा हो । तथा रुचि अनुसार ही भोजन करना चाहिये ॥ १०९ ॥
भोजनविधिः ।
प्रथमं पीत्वा दुग्धं शाल्यन्नं विशदसिद्धमक्किन्नम् । घृतसंप्लुतमश्नीयान्मां सैर्विहङ्गमैः प्रायः ॥ ११० ॥ उत्तममूषरभूचरविष्किरमांसं तथाजमेणादि । अन्यदपि जलचराणां पृथुरोमापेक्षया व्यायः ॥ १११ मांसाला मत्स्या अदोषलाः स्थूलसद्गुणा ग्राह्याः । मद्गुर रोहितशकुला दग्धाः पललान्मनागूना: ११२
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पहिले दूध पीना चाहिये । फिर स्वच्छ सूखा खिला हुआ चावलका भात घी मिलाकर पक्षियोंके मांसरस के साथ रखना चाहिये । तथा ऊषरभूमिमें चरनेवाले अथवा विष्किर और बकरी हिरन आदिका मांस तथा जलचरोंका मांस मोटे रोवेंवालोंकी अपेक्षा अधिक हितकर है, तथा मांसके न मिलनेपर मोटी, गुणयुक्त, दोष रहित मछलियां लेनी चाहियें । तथा भुने हुए, मद्और रोही मछली के टुकड़े मांससे कुछ कम गुणकारी होते हैं ॥ ११०-११२ ॥