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चक्रदत्तः।
[रसायना
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गुणशाली
।। उस पूर्वोह ॥ १२६
२ रत्तीका प्रयोग करना चाहिये । फिर प्रथम वृद्धिमें ३ रत्ती सामान्य लोहसे चौण्ड्र द्विगुण, कलिङ्ग इससे अष्टगुण, (प्रथम ३ दिन २ रत्ती चौथे दिनसे छठे दिनतक प्रतिदिन ३ | उससे भद्र शतगुण, भद्रसे वज्र सहस्र गुण और वज्रसे पण्डि रत्ती ) द्वितीय वृद्धि (७ वैसे ९ वें दिनतक) ५ रती और साठगुण और उससे निरवि दशगुण तथा कान्तलौह उससे फिर प्रति ३ दिनमें ५ रत्ती बढ़ाना चाहिये । वर्षादनके प्रयो- करोडों गुण अधिक गुणशाली अतएव महागुणवाला होता गमें जितने दिन प्रथम बढ़कर ६ माशेकी मात्रा हुई है, उतने | है ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ ही दिन पहिलेसे उसी क्रमसे कम करना चाहिये । उस पूर्वोक्त पूर्ण मात्राको दिनमें तीन बारमें इस भांति खाना चाहिये ।
रसादिरसायनम् । प्रातःकाल १८ रत्ती, मध्यान्हमें १२ रती और सायंकाल | रसतस्तानं द्विगुणं ताम्राकृष्णाभ्रकं द्विगुणम् । १८ रत्ती ॥ १८-१२१ ॥
पृथगेवैषां शुद्धिस्ताम्रस्य ततो द्विविधा ।। १२८ ।। ___अमृतसारलौहसेवनगुणाः। पत्रीकृतस्य गन्धकयोगाद्वा मारणं तथा लवणैः ।
आक्ते ध्मापितताम्रनिर्गुण्डीकल्ककाजिकनिमग्ने॥१२९ एवं तदमृतमश्नन्कान्ति लभते चिरस्थिरं देहम्। | सप्ताहत्रयमात्रात्सर्वरुजो हन्ति किं बहुना ॥१२२॥
| यत्पतति गैरिकाभं तत्पिष्टं चार्धगन्धकं तदनु ।
पुटपाकेन विशुद्धं शुद्धं स्यादभ्रकं तु पुनः ॥ १३० ॥ इस प्रकार इस अमृतका सेवन करनेसे शरीरकी कांति
हिलमोचिमूलपिण्डे क्षिप्तं तदनु मार्दसंपुटे लिप्ते । बढ़ती और देह चिरकालके लिये दृढ़ हो जाता है । केवल २१
'| तीक्ष्णं दग्धं पिष्टमम्लाम्भसा साधु चन्द्रिकारहितम् ॥ दिनके प्रयोगसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं ॥ १२२ ॥
रेचितवाम्रण रसः खल्वे धृष्ट्रा च पिण्डिका कार्या। उपसंहारः।
उत्स्वेद्य गृहसलिलेन निर्गुण्डीकल्केऽसकृच्छुद्धी ॥३२॥ आर्याभिरिह नवत्या सप्तविधीनां यथावदाख्यातम् । एतात्सिद्धं त्रितयं चूर्णितताम्रार्द्धकैः पृथग्युक्तम् । अमतिविर्पययसंशयशून्यमनुष्ठानमुपनीतम् ॥ १२३ ॥ पिप्पलिबिडंङ्गमरिचैः श्लक्ष्णं द्वित्रिमाषिकं भक्ष्यम्१३३ मुनिरचितशास्त्रपारं गत्वा सारं ततः समुद्धृत्य। शूलाम्लपित्तश्वयथुग्रहणीयक्ष्मादिकुक्षिरोगेषु । निबबन्ध बान्धवानामुपकृतये कोऽपि षट्कर्मा।।११४॥ रसायनं महदेतत्पारिहारो नियमतो नात्र ॥ १३४ ॥
इस प्रकार ९० आर्याछन्दोंमें लोहरसायनकी ७ विधियां शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध ताम्र २ भाग, तथा शुद्ध अभ्रक (साध्यसाधनपरिमाणविधिः, स्थालींपाकविधिः, पुनटविधिः-४ भाग ( इस प्रकार तीनों अलग अलग शुद्ध) लेना चाहिये । प्रधाननिष्पत्तिः, पाकावधिः, अभ्रविधिर्भक्षणविधिश्च ) ठीक इसमें ताम्र २ प्रकारसे शुद्ध किया जाता है । प्रथम प्रकारकही गयी हैं । इसमें कोई बात ऐसी नहीं, जो बुद्धिके विपरीत | ताम्रके पत्रोंके समान भाग गन्धक मिलाकर पुटद्वारा भस्म । अथवा संशयात्मक हो । यह महामान्य मुनि नागार्जुनरचित | द्वितीय प्रकार-लवणोंसे लिप्त ताम्रके पत्रोंको तपाकर सम्भालूके लौहशास्त्रका पूर्णतया अनुशील कर बन्धुओंकी उपकारकामनासे कल्क व काजीमें बुझाना चाहिये । इस प्रकार काजीमें गिरे किसी षट्कर्मा ब्राह्मणने “अमृतसारनामक" निबन्ध लिखा हुए गैरिकके समान वर्णवाले ताम्रसे आधे परिमाणमें गन्धक है ।। १२३ ॥ १२४ ॥
मिलाकर पुटद्वारा भस्म । उपरोक्त दो विधियों में से किसी एकसे सामान्यलोहरसायनम् ।
ताम्र शुद्ध कर ले तथा अभ्रकको ले हिलमोचिकाकी जड़के कल्कके
पिण्डमें रखकर चूनेसे लिपे हुए मिट्टी के शराव सम्पुटमें रखना यत्र तत्रोद्भवं लौहं निःशेषं मारितं यदि।।
चाहिये। शराव सम्पुटमें विधिपूर्वक कपरमिछी कर गजपुट में फूक त्रिफलाव्योषसंयुक्तं भक्षयेद्वलिनाशनम् ॥ १२५ ॥ देना चादियोस्वांग शीतल हो जानेपर निकाल कर काजी मिलाकर
कहींका लोहा ले विधिपूर्वक भस्म कर त्रिफला व त्रिकटु | घोट लेना चाहिये । इस प्रकार अभ्रक निश्चन्द्र हो जाता है। मिला विधिपूर्वक सेवन करनेसे वलीपलित ( झुर्रियां, बालोंकी यही शुद्ध अभ्रक हुआ। तथा पारदशोधनकी विधि यह है किसफेदी आदि बुढ़ापेके चिह्न) नष्ट हो जाते हैं ॥ १२५॥ पद्धतिसे सुद्ध किये ताम्रसे समान भाग पारद मिला खरलमें कान्तप्रशंसा।
घोट गोला बना लेना चाहिये । उस गोलेको काजीमें स्वेदन ,
कर सम्भालूके कल्कके साथ अनेक बार घोटना चाहिये । सामान्याद् द्विगुणं चौडू कलिङ्गोऽष्टगुणस्नतः। फिर इस गोलेसे (डमरू यत्र अथवा विद्याधर यन्त्रमें तस्माच्छतगुणं भद्रं भद्राद्वगं सहस्रधा ॥ २२६ ॥ रखकर ) पारद निकाल लेना चाहिये । यही शुद्ध वज्रात्पष्टिगुणा पाण्डिर्निरविर्दशभिर्गुणैः । पारद हुआ । इस प्रकार शुद्ध पारद १ भाग शुद्ध ततः कोटिसहस्रं वा अयस्कान्तं महागुणम्॥१२७॥' ताम्र २ भाग, शुद्ध अभ्रक ४, भाग तथा छोटी पीपल