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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(१६)
नट
पाण्डुरोग तथा अश्मरीको नष्ट करता है । यह तैल साक्षात् ,
सोनतेलम् । भगवान विष्णुका बनाया हुआ समस्त वातरोगोंको नष्ट करनेवाला है ॥ ११९-१२८ ॥
रसोनकल्कस्वरसेन पक्वं
तैलं पिबेद्यस्त्वनिलामयातः । अश्वगन्धातैलम् ।
तस्याशु नश्यन्ति हि वातरोगा . शतं पक्त्वाश्वगन्धाया जलद्रोणेऽशशेषितम् । । प्रथा विशाला इव दुर्गृहीताः॥१३७ ॥ विस्राव्य विपचेचैलं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम्॥१२९॥
जो वातव्याधिसे पीड़ित पुरुष लहसनके कल्क व स्वरससे कल्कैर्मृणालशालूकबिसकि जल्कमालती ।
| पकाया हुआ तेल पीता है, उसके वातरोग इस प्रकार शीघ्र ही पुष्पहीबेरमधुकशापरवापद्मकेशरैः ॥ १३० ॥
नष्ट हो जाते हैं जैसे दुष्टके हाथमें पड़े हुए · अथवा ज्ञानपूर्वक मेदापुनर्नवाद्राक्षामजिष्ठाबृहतीद्वयैः ।
न पढ़े गये विशाल प्रन्थ ॥१३७॥ एलैलवालुत्रिफलामुस्तचन्दनपद्मकैः ॥ १३१ ॥ पकं रक्ताश्रयं वातं रक्तपित्तमसृग्दरम् ।
केतक्याचं तैलम् । हन्यात्पुष्टिबलं कुर्यात्कृशानां मांसवर्धनम् ॥१३२॥ रेतोयोनिविकारनं घ्राणशोषापकर्षणम् ।
केतकिनागबलातिबलानां .........। षण्ढानपि वृषान्कुर्यात्पानाभ्यङ्गानुवासनैः॥१३३॥
यद्वहुलेन रसेन विपकम् ।
तैलमनल्पतुषोदकसिद्धं . असगन्ध ५ सेर जल १ द्रोणमें पकाना तथा चतुर्थांश .. मारुतमस्थिगतं विनिहन्ति ।। १३८॥ रहनेपर उतार छान १ प्रस्थ तिलतैल, ४ प्रस्थ दूध तथा कम- अनल्पवचनात्तत्र तुल्ये काथतुषोदके। लकी डण्डी, कमलकी जड़, कमलके तन्तु तथा कमलका केशर,
अकल्कोऽपि भवेत्नेहो यः साध्यः केवले द्रवे.१३९ मालतीके फूल, सुगन्धवाला, मैरेठी, शारिवा, कमलके फूल, नागकेशर, मेदा, पुनर्नवा, मुनक्का, मजीठ, छोटी कटेरी, बडी केबड़ा, गङ्गेरन व कंघीके क्वाथ तथा काजीमें सिद्ध किया कटेरी, छोटी बड़ी इलायची, एलवालुक, त्रिफला, नागरमोथा गया तैल अस्थिगत वायुको शान्त करता है । इसमें चन्दन, पाख, प्रत्येकका मिला हुआ कल्क तैलसे चतर्थी प्रत्येक द्रव्यका क्वाथ तथा तुषोदक ( काजी) तैलके छोड़कर पकाना चाहिये। यह तैल रक्ताधित वात. रक्तपित्त बराबर छोड़ना चाहिये । कल्कके बिना भी स्नेह रक्तप्रदरको नष्ट करता, पुष्टि तथा बल बढ़ाता और कृश पुरु
सिद्ध होता है, जो केवल द्रवमें सिद्ध किया जाता बाँके मांसको बढाता, रज व वीर्यके दोषों को नष्ट करता. है ॥ १३८॥ १३ ॥ नाकका सूखना नष्ट करता तथा नपुंसकोंको भी पीने, मालिश तथा अनुवासन वस्तिसे पुरुषत्व प्रदान करता है॥१२९-१३३॥
सैन्धवाद्यं तैलम् । मूलकाद्यं तैलम् ।
द्वे पले सैन्धवात्पश्च शुण्ठया प्रन्धिकचित्रकात् । मूलकस्वरसं तैलं क्षीरदध्यम्लकालिकम् ।
द्वे द्वे भल्लातकास्थिनी विंशतिढे तथाढके ॥ १४ ॥ तुल्यं विपाचयेत्कल्केबेलाचित्रकसैन्धवैः॥ २३ आरनालात्पचत्प्रस्थ तैलमेतरपत्यदम्।। पिप्पल्यतिविषारास्नाचविकागुरुचित्रकैः।
गृध्रस्यूरुग्रहार्थोऽर्तिसर्ववातविकारनुत् ॥ १४१ ॥ भल्लातकवचाकुष्ठश्वदंष्ट्राविश्वभेषजैः॥१३५ ॥ सेंधानमक २ पल, सोंठ ५ पल, पिपरामूल २ पल, पुष्कराहशटीबिल्वशताबनतदारुभिः।
चीतकी जड़ २ पल, भिलावांकी गुठली २० गिनी हुई, कामी . तत्सिद्धं पीतमत्युग्रान्हन्ति वातात्मकान्गदान १३६ |
|२ माढक तथा तल प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये ।यह मूलीका स्वरस, तिलतैल, खट्टा दही, काजी प्रत्येक समान | तले सन्तानदायक तथा गृध्रसी, ऊरुग्रह, अर्श और बासरोगोंको भाग तथा खरेटी, चीतकी जड़, सेंधानमक, छोटी पीपल.| नष्ट करता है ॥१४०॥ १४१॥ . अतीस, रासन, चव्य, अगर, चीतकी जड़, भिलावां, बच, कूठ, गोखुरू, सोंठ, पोहकरमूल, कचूर, बेलका गूदा, सौंफ, १इसमें कल्क अधिक है, अतः " द्विगुणं तद् द्रवाईयोः" तगर, देवदारुका मिलित करक तेलसे चतुर्शीश छोड़कर इस परिभाषाको लगाकर द्विगुण तैल अर्थात् ११८ तोला पकाना चाहिये । यह तेल पीनेसे उग्रवातात्मक रोगोंको नष्ट और द्विगुण काजी अर्थात् १२ सेर ६४ तोला छोड़ना करता है ।। १३४-१३६ ॥
चाहिये।