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[शूला
(१४०)
चन्न्न्न्न्न्न् पञ्चकोलचूर्णम् ।
आमशूलमें कफशूल नाशक तथा अग्निदीपक व आमपाचक लवणत्रयसंयुक्तं पञ्चकोलं सरामठम् ।
चिकित्सा करनी चाहिये ॥३७॥ सुखोष्णेनाम्बुना पीतं कफशूलविनाशनम् ॥३२॥
हिंग्वादिचूर्णम् । तीनों नमक, पञ्चकोल, तथा भुनी हींग सब समान भाग ले चूर्ण कर गरम जलके साथ पीनेसे कफजन्य शूल सहिगुतुम्बुरुव्योषयमानीचित्रकाभयाः। नष्ट होता है ॥ ३२॥
सक्षारलवणाश्चूर्ण पिबेत्प्रातः सुखाम्बुना ॥ ३८॥ बिल्वमूलादिचूर्णम् ।
विण्मूत्रानिलशूलघ्नं पाचनं वह्निदीपनम् । बिल्वमूलमथैरण्डं चित्रकं विश्वभेषजम् ।
भुनी हींग, तुम्बुरू, त्रिकटु, अजवायन, चीतकी जड़, बड़ी हिंगुसैन्धवसंयुकं.सद्यः शूलनिवारणम ॥३३॥ |हरेका छिल्का, यवाखार, व सेंधानमक सब समान भाग ले
बेलकी जड़की छाल, एरण्डकी छाल, चीतकी जड़, सोंठ | चूर्ण कर गुनगुने गुनगुने जलके साथ पीनेसे विष्ठा, मूत्र तथा तथा भुनी हींग व सेंधानमकका चूर्ण गरम जलके साथ पीनेसे वायुकी रुकावट तथा शूल नष्ट होता है और आमका पाचन
तथा अग्नि दीप्त होती है * ॥३८॥ तत्काल शूल नष्ट होता है ॥ ३३ ॥ मुस्तादिचूर्णम् ।
___ * धात्रीलौहम्-" षट्पलं शुद्धमण्डूरं यवस्य कुडवं तथा । मुस्तं वचा तिक्तकरोहिणीं च
पाकाय नीरप्रस्थाधं चतुर्भागावशेषितम् ॥ शतमूलीरसस्याष्टावामतथाभयां निर्दहनी च तुल्याम् ।
लक्या रसस्तथा । तथा दविपयोभूमिकूष्माण्डस्य चतुष्पलम् ॥ पिबेत्तु गोमुत्रयुतां कफोत्थ
चतुष्पलं शर्कराया घृतस्य च चतुष्पलम् । प्रक्षेपं जीरकं धान्य शूले तथामस्य च पाचनार्थम् ॥ ३४॥ त्रिजातं करि-पिप्पलीम् ॥ मुस्तं हरीतकी चैव अभ्रं लौहं कटुनागरमाथा, दूधिया बच, कुटकी, बडी हरका छिल्का.|त्रयम् । रणुकं त्रिफलां चैव तालीशं नागकेशरम ॥ प्रत्येक तथामा, समान भाग ले चूर्ण कर गोमत्रके साथ पीनेसे कफज | कार्षिकं चूर्ण पेषयित्वा विनिक्षिपेत् । भोजनादौ तथा मध्ये शूलका नाश तथा आमका पाचन होता है॥ ३४ ॥ चान्ते चैव समाहित । तोलेकं भक्षयनित्यमनुपानं पयोऽथवा ।
शूलमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा ॥ वातिक पैत्तिकं वचादिचूर्णम् ।
चैव श्लैष्मिकं सानिपातिकम् । परिणामसमुत्थांश्च अन्नद्रवसमुद्भवचाब्दाग्न्यभयातिक्ताचूर्ण गोमूत्रसंयुतम् ।
वान् ॥ द्वन्द्वजान्पक्तिशूलांश्च अम्लपित्तं सुदारुणम् । सर्वशूलहरं सक्षारं वा पिबेत्वार्थ बिल्वादेः कफशूलवान्।।३५। श्रेष्ठं धात्रीलौहमिदं स्मृतम् ॥" शुद्ध मण्डूर २४ तो०, यव १६ मीठा वच, नागरमोथा, चीतकी जड़, बड़ी हर्रका छिल्क तोला को ६४ तो० जलमें पकाकर १६ तो० शेष छना हुआ तथा कुटकीका चूर्ण गोमुत्रके साथ अथवा बिल्वादि गणकी| क्वाथ, शतावरका रस ३२ तोला, आंवलेका रस ३२ तो० तथा औषधियोंका क्वाथ यवाखार मिलाकर पीनेसे कफजन्य शूल दही १६ तो० दूध १६ तो० तथा विदारीकन्दका रस १६ नष्ट होता है ॥ ३५॥
तो०, शक्कर १६ तो. तथा घी १६ तो. सबको मिलाकर
| पकाना चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर जीरा, धनियां, दालयोगद्वयम् ।
चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, गजपीपल, नागरमोथा, मातुलुङ्गरसो वापि शिक्काथस्तथापरः।
हर्र, अभ्रकभस्म, लौहभस्म, त्रिकटु, सम्भालूके बीज, त्रिफला
तथा तालीशपत्र प्रत्येक १ तो० का चूर्ण छोड़ना चाहिये । सक्षारो मधुना पीतः पार्श्वहृद्वस्तिशूलनुत् ॥ ३६ ।।
इसको भोजनके पहिले, मध्यमें तथा अन्तमें १ तो० की मात्रासे (१) बिजोरे निम्बूका रस(२) अथवा सहिजनकाक्वाथ यवाखार सेवन करना चाहिये । अनुपान दूध अथवा जल । यह " धात्रीव शहद मिलाकर पीनेसे पसली, हृदय तथा वस्तिके शूलको | लौह " साध्य तथा असाध्य वातिक, पैत्तिक, श्लौष्मिक तथा नट्ट करते हैं ॥३६॥
सान्निपातिक, अन्नद्रव, परिणामजन्य शूल तथा कठिन अम्ल
पित्तको नष्ट करता है। यह समस्त शूलको नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है। आमशूलचिकित्सा।
वर्तमान समयमें इसकी मात्रा ४ रत्तीसे २ माशेतक है। यह आमशूले क्रिया कार्या कफशूलविनाशिनी।
प्रयोग भी किसी किसी में है, किसी में नहीं । अतः टिप्पणीरूपमें सेव्यमामहरं सर्व यदमिबलवर्धनम् ॥ ३७॥ लिखा गया है ।