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विकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(१३९)
रस, विदारीकन्दका रस त्रायमाणका रस अथवा अङ्गुरका रस| आंवलेका चूर्ण शहदके साथ चाटनेसे पित्तशुल ना शक्कर मिलाकर पीनेसे शीघ्र ही पित्तज शूल नष्ट होता है। इसी होता है * ॥ २९ ॥ प्रकार शतावरीका रस, शहद मिलाकर प्रातःकाल पीनेसे दाह, शुल तथा समस्त पित्तज रोग शांत होते हैं ॥ १८-२३ ॥
कफजशूलचिकित्सा।
श्लेष्माधिके छर्दनलङ्घनानि बृहत्यादिक्वाथः।
शिरोविरेकं मधुशीधुपानम् । बृहत्यौ गोक्षुरेरण्डकुशकाशेक्षुवालिकाः ।
मधूनि गोधूमयवानरिष्टान् पीताः पित्तभवं शूलं सद्यो हन्युः सुदारुणम्॥२४॥ . सेवेत रूक्षान्कटुकांश्च सर्वान् ॥ ३०॥
छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, गोखुरू, एरण्डकी छाल, कुश, कफाधिक शूलमें वमन, लंघन, शिरोविरेचन (नस्य ) शहदके काश, तथा ईखकी जड़का क्वाथ पित्तज शूलको तत्काल शांत शीधु ( मद्यविशेष ) का पान, शहद, गेहूँ, यव, अरिष्ट तथा करता है ॥२४॥
रूखे और कडुए समस्त पदार्थ हितकर हैं ॥३०॥ शतावर्यादि जलम् ।
पञ्चकोलयवागूः। शतावरीसयष्टयाह्ववाटयालकुशगोक्षुरैः ।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। शृतशीतं पिबेत्तोयं सगुडक्षौद्रशर्करम् ॥२५॥
यवागूर्दीपनीया स्याच्छूलनी तोयसाधिता ॥३१॥ पित्तामृग्दाहशूलनं सद्यो दाहज्वरापहम् ।।
पिप्पली, पपिलामूल, चव्य, चीता, सोंठ इन ओषधियोंके शतावरी, मौरेठी, खरेटी, कुश, तथा गोखुरूका जल ठण्ढ़ा|
क्वाथमें सिद्ध यवागू अग्निको दप्ति करती तथा कफजन्य शूलको कर गुड़, शहद व शक्कर मिलाकर पीनेसे रक्तपित्त, दाह, शूल
नष्ट करती है ॥ ३१॥ तथा दाहयुक्त ज्वर शांत होता है ॥ २५॥त्रिफलादिकाथः।
* अपरो नारिकेलखंडः । “नारिकेलपलान्यष्टौ शर्कराप्रस्थ
संयुतम् । तजलं पात्रमेकं तु सर्पिष्पञ्चपलानि च ॥ शुण्ठीचूर्णस्य त्रिफलानिम्बयष्टथाह्वकटुकारग्वधैः शृतम् ॥ २६ ॥
| कुडवं प्रस्थाद्धं क्षारमेव च । सर्वमेकीकृतं पात्रे शनैर्मुदामिना पाययेन्मधुसंमिश्र दाहशूलोपशान्तये।
पचेत् ॥ तुगात्रिकटुकं मुस्तं चतुर्जातं सधान्यकम् । द्वे कणे त्रिफला, नीमकी छाल, मारठा, कुटका, तथा अमलतासकाकर्षयग्मं च जीरकं च पृथक्पृथक ॥ लक्षणचूर्ण विनिक्षिप्य गूदेका क्वाथ ठंढ़ा कर शहद मिला पीनेसे दायुक्त शल शान्त स्थापयेद्भाजने मृदः । खादेत्प्रतिदिनं शाणं यथेष्टाहारवानपि ॥ होता है ॥ २६ ॥
सर्वदोषभवं शूलमामवातं विनाशयेत् । परिणामभवं शुलमम्लपित्तं
विनाशयेत् ॥ बलपुष्टिकरं चैव वाजीकरणमुत्तमम् । रक्तपित्तहरं एरण्डतैलयोगाः।
| श्रेष्ठ छर्दिहृद्रोगनाशनम् ॥ अनिसन्दीपनकरं सर्वरोगनिबर्हणम् ॥" तैलमेरण्ड वापि मधुकक्वाथसंयुतम् ॥२७॥ |कची गरी ३२ तोला, घी २० तोलामें प्रथम भून लेना चाहिये । शूलं पित्तोद्भवं हन्याद् गुल्मं पैत्तिकमेव च। फिर उसीमें शक्कर ६४ तोला और नरियलका जल ६ से.
३२ तोला, सोंठ १६ तोला, दूध ६४ तोला सब एकमें मिलाकर अथवा एरण्डका तैल मोरेठीके क्वाथके साथ पानसे पित्त शूल धीरे धीरे मन्द आंचसे पकाना चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर तथा पित्तज गुल्म शान्त होता है ॥ २७ ॥
उतार कर वंशलोचन, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, दालअपरस्त्रिफलादिक्वाथः।
चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर, धानियां, छोटी पीपल, .
गजपीपल, जीरा इनमेंसे प्रत्येक ओषधिका यथा-विधि निर्मित त्रिफलारग्वधक्वाथं सक्षौद्रं शर्करान्वितम् ॥२८॥
|२ तोला चूर्ण छोड़कर मिट्टीके बर्तनमें रखना चाहिये । इससे पाययेद्रक्तपित्तनं दाहशुलनिवारणम् ।
| प्रतिदिन ३ माश खाना चाहिये तथा यथेच्छ आहार करना त्रिफला तथा अमलतासका काथ शहद व शकर मिलाकर चाहिये । यह समस्त दोषज शुल, आमवात, परिणाम पीनेसे रक्तपित्त तथा दाहयुक्त शूल नष्ट होता है ॥ २८ ॥- शूल व अम्लपित्तको नष्ट करता है। यह रक्तपित्त, छर्दि ब
हृद्रोगको नष्ट, अमिको दप्ति तथा समस्त रोगोंको दूर करता है। धात्रीचूर्णम् ।
यह प्रयोग भी कुछ पुस्तकोंमें हैं, कुछमें नहीं।अतः टिप्पणीरूपमें प्रलिह्यापित्तशूलनं धात्रीचूर्ण समाक्षिकम् ॥२९॥ लिखा गया है ।