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(२३८)
चक्रदत्तः।
- [ क्षुद्ररोगा
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दूधमें मिलाकर बनाये गये लेपको लगानेसे मुख उदय होते हुए मजीठ, चन्दन, लाख, बिजौरानिम्बू, तथा मोरेठी, चन्द्रमाके समान स्वच्छ होता है ॥ ५१॥
प्रत्येक एक तोला, तैल १६ तोला, बकरीका दूध ३२ तो.
सबको मिलाकर मन्द आंचसे पकावे । इसकी मालिशसे झांई, दध्यादिलेपः।
फुन्सियां, व्यङ्ग नष्ट होते हैं, मुख प्रसन्न और स्थूल होता है, परिणतदधिशरपुङ्खः
| तथा झुर्रियां व बालोंकी सफेदी नष्ट होती है, सात रातके ___ कुवलयदलकुष्ठचन्दनोशीरैः।
प्रयोगसे मुख सोनेके समान सुन्दर होता है ॥ ५८-६०॥ मुखकमलकान्तिकारी
कुंकुमादितैलम् । भ्रफुटीतिलकालकाजयति ॥५२॥
कुङ्कुमं चन्दनं लाक्षा मजिष्ठा मधुयष्टिका । जमा दही, शरपुंखा, कमलकी पत्ती, कूठ, चन्दन व खशका लेप मुखकी कान्तिको बढ़ाता तथा भौंहोंके तिल आदिको नष्ट
कालीयकमुशीरं च पद्मकं नीलमुत्पलम् ।। ६१ ॥ करता है । ५२॥
न्यग्रोधपादाः प्लक्षस्य शुङ्गाः पद्मस्य केशरम् ।
द्विपञ्चमूलसहितैः कषायैः पलिकैः पृथक् ।। ६२।। हरिद्रादिलेपः।
जलाढकं विपक्तव्यं पादशेषमथोद्धरेत् । हरिद्राद्वययष्टथाह्वकालीयककुचन्दनः।
मञ्जिष्ठा मधुकं लाक्षा पतङ्गं मधुयाष्टिका ॥६३॥ प्रपोण्डरीकमञ्जिष्ठापद्मपद्मककुंकुमैः ॥ ५३॥ | कर्षप्रमाणरेतैस्तु तैलस्य कुडवं तथा । कपित्थतिन्दुकप्लक्षवटपत्रैः पयोऽन्वितैः ।
अजाक्षीरं तदद्विगुणं शनैर्मृद्वग्निना पचेत् ॥ ३४॥ लेपयेत्कल्कितैरेभिस्तैलं वाभ्यञ्जनं चरेत् ॥ ५४॥ सम्यक्पकं परं ह्येतन्मुखवर्णप्रसादनम् । पिप्लवं नीलिकाव्यङ्गास्तिलकान्मुखदूषिकान् । । नीलिकापिडकाव्यङ्गानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥६५॥ नित्यसेवी जयेत्क्षिप्रं मुखं कुर्यान्मनोरमम् ॥ ५५॥ सप्तरात्रप्रयोगेण भवेत्काञ्चनसन्निभम् । हल्दी, दारुहल्दी, मोरेठी, दारुहल्दी, लालचन्दन, पुंडरिया,
कुङ्कुमाद्यमिदं तैलमश्विभ्यां निर्मितं पुरा ॥ ६६ ।। मजीठ, कमल, पद्माख, केशर, कैथा, तेन्दू, पकरिया तथा वरगदके पत्तोंका दूधके साथ कल्ककर लेप करनेसे अथवा इनसे
केशर, चन्दन, लाख, मजीठ, मौरेठी, दारु हल्दी, सिद्ध तेलकी मालिश करनेसे मशे, नीलिका, व्यङ्ग, तिल, खश, पद्माख, नीलोफर, वरगदकी वौं, पकरियाकी मुलायम मुहासे आदि शीघ्र नष्ट होते है तथा मुख मनोहर
|पत्ती, कमलका केशर तथा दशमूल प्रत्येक ४ तोलाका होता है ॥ ५३-५५॥
काढा ३ सेर १६ तो० जल (द्रवद्वैगुण्यात् ६ सेर ३२ तो०) में
पकाना चाहिये, चतुर्थाश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना कनकतैलम् ।
चाहिये । फिर इसी क्वाथमें मजीठ १ तोला, मौरेठी, लाख, मधुकस्य कषायेण तैलस्य कुडवं पचेत् । पीला चन्दन, मोरेठी प्रत्येक १ तोलाका कल्क तथा तैल १६ कल्कैः प्रियगुमजिष्ठाचन्दनोत्पलकेशरैः॥५६॥ तो० और बकरीका दूध दूना मिलाकर मन्द आंचसे पकाना कनकं नाम तत्तैलं मुखकान्तिकरं परम् । चाहिये । अच्छी तरह पका हुआ यह मुखके वर्णको उत्तम अभारुनीलिकाव्यङ्गशोधनं परमर्चितम् ॥ ५७॥
करता है । झाई, फुन्सियां, व्यङ्ग आदिको मालिशसे नष्ट करता मौरेठीके काढ़े तथा प्रियङ्गु, मजीठ, चन्दन, नीलोफर
है । सात रातके प्रयोगसे मुख सोनेके समान उत्तम होता है। नागकेशरके कल्कसे सिद्ध तैल मुखकान्तिको बढ़ाता तथा |
यह “कुंकुमादि " तैल पहिले पहिल अश्विनीकुमारने
|बनाया था * ॥६१-६६ ॥ मुहासे, नीलिका, व्यंग आदिको नष्ट करता है। इसे “कनकतैल"| कहते हैं ॥ ५६ ॥ ५७ ॥
* यहाँपर इसी तैलके अनन्तर एक दूसरा तैल भी द्वितीय मञ्जिष्ठादितैलम् ।
कुंकुमादिके नामसे है। यह पूर्व तैलका एक बहुत छोटा अंश मजिष्ठा चन्दनं लाक्षा मातुलुङ्गं सयष्टिकम्।
है । यथा,-" कुंकुम चन्दनं लाक्षा मजिष्टा मधुयष्टिका ।
कर्षप्रमाणैरेतैस्तु तैलस्य कुडवं पचेत् ॥" शेष प्रथमके कर्षप्रमाणैरेतैस्तु तैलस्य कुडवं तथा ॥ ५८ ॥
६४, ६५, ६६, के अनुसार अर्थात् केवल केशर, चन्दन, आज पयस्तद्विगुणं शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ।
| लाख, मजीठ, मौरेठी इनके १ तो० की मात्रासे कल्क नीलिकापिडकाव्यङ्गानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥५९॥ छोड़कर एक कुडव तैल, २ कुडव बकरीका दूध और २ मुखं प्रसन्नोपचितं वलीपलितवजितम ।
कुड़व जल मिलाकर पकाना चाहिये । हम इसे "लघुकुंकुमादि" सप्तरात्रप्रयोगेण भवेत्कनकसन्निभम् ॥ ६०॥ कह सकते हैं ।