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(२६८) चक्रदत्तः।
[ नेत्ररोगान्चजन्न्न्न्न्न्न् अधिमन्थादयश्चान्ये रोगाः स्युर्दुष्टवेधजाः । । यदि इस प्रकार शूल शान्त न हो, तो स्नेहन स्वेदन कर अहिताचारतो वापि यथास्वं तानुपाचरेन् ॥१५८॥ शिराव्यध करना चाहिये तथा शिरादाह करना चाहिये । रुजायामक्षिरोगे वा भूयो योगान्निबोध मे। इसके बाद नेत्रको शुद्ध करनेवाले अञ्जन कहते हैं॥१६२॥१६३॥ कफजन्य लिंगनाश ( मोतियाबिन्दमें ) विधिपूर्वक देवकृत | मेषशृङ्गयाद्यञ्जनम् । छिद्र ( अपाङ्गकी ओर शुक्लभाग ) में वेधकर नेत्रको स्त्रीदु- मेषशृङ्गस्य पत्राणि शिरीषधवयोरपि । ग्धसे भर देना चाहिये । फिर जब रूप दिखलाई पड़न लगे| मालत्याश्चापि तुल्यानि मुक्तावैदूर्यमेव च ॥१६४॥ तो सलाई धीरेसे निकाल लेनी चाहिये । फिर नेत्रमें घीको चुप
अजाक्षीरेण संपिष्य ताने सप्ताहमावपेत् । । डकर कपड़ा लपेट देना चाहिये । फिर बाधारहित घरमें
प्रणिधाय तु तद्वति योजयेदञ्जने भिषक् ॥ १६५॥ उत्तान ही सोना चाहिये । वेधके समय डकार, खांसी, थूकना,
| मेषङ्गीके पत्ते, सिरसा, धव और चमेलीके पत्ते, तथा छींकना, हिलना आदि बन्द रक्खें, बादमें स्नेहपान करनेवालेके |
मोती व लहसुनिया समान भाग ले बकरीके दूधसे घोटकर ७ समान परहेज करे, तथा तीन तीन दिनमें वातनाशक काढोंसे |
दिन ताम्रपात्रमें रखना चाहिये, फिर इसकी बत्ती बनाकर धोवे, तथा वायुके भयसे ३ दिनके बाद स्नेहका सिञ्चन पूर्ववत्
अञ्जन लगाना चाहिये ॥ १६४ ॥ १६५॥ करे । इस प्रकार दश रात्रि संयम' कर नेत्र स्वच्छ करनेवाला उपाय करे और हल्का अन्न मात्रासे खावे । लालिमा, गरमी,
स्रोतोजांजनम् । अर्बुद, शोथ, बुलबुला, केकराक्षिता तथा अधिमन्थ आदि स्रोतोजं विदुमं फेनं सागरस्य मनः शिलाम् । अनेक रोग दुष्ट बेध या मिथ्याहार विहारसे हो जाते हैं, उनकी मारचानि च तद्वति कारयेत्पूर्ववाद्भषक्।।१ ६६ ॥ यथोचित चिकित्सा करे। पीड़ा और लालिमामें आगे कहे | नीला सुरमा, मुंगा, समुद्रफेन, मनशिल व कालीमिर्चकी हुए योग काममें लाने चाहियें ॥ १५२-१५८-॥
बत्ती बनाकर आञ्जना चाहिये ॥ १६६ ॥ रुजाहरलेपाः।
रसाञ्जनाञ्जनम् । कल्किताः सघृता दूर्वायवगैरिकशारिवाः ॥१५९॥
रसाजनं घृतं क्षौद्र तालीसं स्वर्णगौरकम् । सुखलेपाः प्रयोक्तव्या रुजारागोपशान्तये ।
गोशकृद्रससंयुक्तं पित्तोपहतदृष्टये ॥ १६७ ॥ पयस्याशारिवापत्रमञ्जिष्ठामधुकैरपि ॥ १६०॥
रसौत, घी, शहद, तालीसपत्र व सुनहला गेरू इनको गायके अजाक्षीरान्वितैलेपः सुखोष्णः पथ्य उच्यते।
|गोबरके रससे पित्तसे दूषित नेत्रवालेको लगाना चाहिये ॥१६७n दूब, यव, गेरू, व शारिवा इनका कल्क कर घीमें मिला |
नलिन्यञ्जनम् । कुछ गुनगुना लेप पीड़ा व लालिमाकी शान्तिके लिये करना नलिन्युत्पलकिञ्जल्कं गोशकृद्रससंयुतम् । चाहिये । अथवा क्षीरविदारी, शारिवा, तेजपात, मजीठ व गुडिकाजनमतत्स्यादिनराच्यन्धयोर्हितम् ॥१६८॥ मोरेठी को बकरीके दूधमें पीस गुनगुना लेप हितकर होता कमलिनी, व कमलके केशरकी गायके गोबरके रससे है ॥ १५९ ॥ १६०॥
गोली बनाकर आंखमें लगाना दिन और रात्रि दोनोंकी अन्ध
तामें लाभ करता है ॥ १६८॥ घृतम् ।
नदीजाञ्जनम् । वातनसिद्धे पयसि सिद्धं सर्पिश्चतुर्गुणे ॥ १६१ ॥
नदीजशङ्खत्रिकटून्यथाअनं काकोल्यादिप्रतीवापं प्रयुज्यात्सर्वकर्मसु ।
मनःशिला द्वे च निशे गवां शकृत् । वातनाशक ओषधियोंसे सिद्ध चतुर्गुण दूधमें सिद्ध घृतको संचन्दनेयं गुडिकाथ चाजने काकोल्यादि चूर्णके साथ मिलाकर सब काममें प्रयुक्त करना | प्रशस्यते रात्रिदिनेष्वपश्यताम् ॥ १६९ ॥ चाहिये ॥ १६१॥
नीला सुरमा, शंख, त्रिकटु, रसौत, मैनाशल, हल्दी, दारु
| हल्दी, गोबर व चन्दनकी गोली बनाकर आंखमें लगानेसे शिराव्यधः।
पूर्वोक्त गुण करती है ॥ १६९॥ शाम्यत्येवं न चेच्छूल स्निग्धस्विन्नस्य मोक्षयेत् १६२/
कणायोगः। ततः शिरां दहेच्चापि मतिमान्कीर्तितां यथा। कणा च्छागशकृन्मध्ये पक्का तद्रसपेषिता । दृष्टेरतः प्रसादार्थमञ्जने शृणु मे शुभे ॥ १६३ ॥ । अचिराद्धन्ति नक्तान्ध्यं तद्वत्सझौद्रमूषणम् ॥१७॥