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विकारः] भाषाटीकोपेतः।
(२६७) सन्न्न्न्नन्छ पृथ्वीमें अङ्गुली घिसकर आजनेसे दूर या समीप न
सैन्धवयोगः। दिखलाई पड़ना तथा तिमिर, काच और अर्म तथा धूमिका
चित्राषष्ठीयोगे सैन्धवममलं विचूर्ण्य तेनाक्षि । नष्ट होते हैं ॥ १४२॥
शममञ्जनेन तिमिरं गच्छति वर्षादसाध्यमपि १४७ नागयोगः।
चित्रा नक्षत्र और षष्ठी तिथि जिस दिन हो, उस दिन त्रिफलाभृङ्गमहौषधमध्वाज्यच्छागपयसि गोमत्रे। | सफेद सेंधानमक महीन पीसकर अञ्जन लगाते रहनेसे एक
सालमें असाध्य तिमिर भी शान्त होता है ॥१४॥ नागं सप्त निषिक्तं करोति गरुडोपमं चक्षुः ॥१४३।। त्रिफला, भांगरा, सोंठ, शहद, घी, बकरीके दूध, व गोमू
उशीराञ्जनम्। त्रमें सात दिनतक भावित शीसा नेत्रको गरुड़के समान उत्तम| दद्यादुशीरनियूहे चूर्णितं कणसैन्धवम् । बनाता है॥ १४३ ॥
तच्छ्रतं सघृतं भूयः पचेत्क्षौद्रं क्षिपेद् घने॥१४८॥
शीते तस्मिन्हितमिदं सर्वजे तिमिरेऽजनम् ।। १४९ शलाकाः।
खशके क्वाथमें चूर्ण किया सेंधानमक छोड़े, फिर उसको त्रिफलसलिलयोगे भृङ्गराजद्रवे च
घी मिलाकर पकावे, फिर गाढा होजानेपर उतार ठंडा कर शहहविषि च विषकल्के क्षार आजे मधूगे।
दके साथ मिलाकर अञ्चन लगावे । यह अजन सर्वज तिमिरके
| लिये हितकर है ॥ १४८ ॥ १४९ ॥ प्रतिदिनमथ तप्तं सप्तधा सीसमेक प्रणिहितमथ पश्चात्कारयेत्तच्छलाकाम् १४४]
धाच्यादिरसक्रिया। सवितुरुदयकाले साना व्यजना वा
धात्रीरसाजनक्षीद्रसपिभिस्तु रसक्रिया करकारकसमेतानर्मपचिट्यरोगान् । । पित्तानिलाक्षिरोगनी तैमिर्यपटलापहा ।।१५०॥ असितसितसमुत्थान्सन्धिवाभिजातान आंवला, रसौंत, शहद व घीकी रसाक्रिया पित्त और हरति नयनरोगान्सेव्यमाना शलाका १४५॥ वातजन्य नेत्ररोग तथा तिमिर और पटलको नष्ट करती
है ॥ १५०॥ एक शीसाके टुकड़ेको एक एक चीजमें सात सात बार तपाकर बुझाना चाहिये । बुझानेकी चीजें-त्रिफलाका
शृंगवेरादिनस्यम् । काढा, भांगरेका रस, घी, सींगियाका कल्क, क्षार, और शृंगवेरं भंगराजं यष्टीतेलेन मिश्रितम् । बकरीका दूध तथा शहद है । इसके अनन्तर उस
नस्यमेतेन दातव्यं महापटलनाशनम् ॥ १५१॥ शीशेकी सलाई बनवानी चाहिये । सूर्य उदयके समय |
साठे, भांगरा व मौरेठीको तेलमें मिलाकर नस्य देनेसे यह सलाई अजनके सहित अथवा विना अञ्जनके आंख-1
आख-महापटल नष्ट होता है ॥ १५१॥ में लगानसे करकरी, अर्म, पिचिट, काले भाग या सफेद भाग सन्धि और विनियोंके रोगोंको नष्ट करती। लिङ्गनाशचिकित्सा । है ॥ १४४ ॥ १४५॥
लिङ्गनाशे कफोद्भूते यथावद्विधिपूर्वकम् ।
विद्ध्वा देवकृते छिद्रे नेत्रं स्तन्येन पूरयत् ॥१२॥ गौञ्जाजनम् ।
ततो दृष्टेषु रूपेषु शलाकामाहरेच्छनैः। चिञ्चापत्ररसं निधाय विमले चौदुम्बरे भाजने नयनं सर्पिषाभ्यज्य वस्त्रपट्टेन वेष्टयेत् ॥ १५३ ।। मूलं तत्र निघृष्टसैन्धवयुतं गौ विशोण्यातपे। ततो गृहे निराबाधे शयीतोत्तान एव च । तच्चूर्ण विमलाजनेन सहितं नेत्राखने शस्यते उद्गारकासक्षवथुष्ठीवनोत्कम्पनानि च ॥ १५४ ॥ काचार्मार्जुनपिचिटे सतिमिरे स्रावं च निर्वारयेत् ॥ तत्कालं नाचरेदूव॑ यन्त्रणा स्नेहपीतवत् ।
त्र्यहाव्यहाद्धावयेत्तु कषायैरनिलापहैः ॥ १५५ ॥ इमलीकी पत्तीके रसको स्वच्छ ताम्रके पात्र में रखकर उसीमें| घिसे, सेंधानमकके साथ गुञ्जाकी जड़ रख धूपमें सुखाना
वायोर्भयाध्यहादूर्ध्व स्नेहयेदाक्ष पूर्ववत् । चाहिये । इस चूर्णको सफेद सुर्माके साथ मिलाकर आंखमें
दशरात्रं तु संयम्य हितं दृष्टिप्रसादनम् ॥ १५६ ॥ लगाना काच, अर्म, अर्जुन, पिचिट और तिमिरमें हितकर है| पश्चात्कम च सवत लम्वन्न चापि मात्रया । तथा स्रावको बन्द करता है ॥ १४६ ॥
रागश्चोषोऽर्बुद शोथो बुबुदं केकराक्षिता ॥१५७