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चक्रदत्तः।
[ रक्तपिचा
द्रवमानम् ।
मूर्ध्नि लेपः। भावनायां द्रवो देयः सम्यगार्द्रत्वकारकः । भावनामें इतना द्रव छोड़ना चाहिये, जिससे चूर्ण अच्छी
नासाप्रवृत्तरुधिरं धृतभृष्टं लक्ष्णपिष्टमामलकम् । तरह तर हो जाय ।
सेतुरिव तोयवेगं रुणद्धि मूर्ध्नि प्रलेपेन ॥ ३३ ॥
आमला महीन पीस घीमें भूनकर शिरमें लेप करनेसे नासासे एलादिगुटिका।
बहते हुए रक्तको जलवेगको बान्धके समान रोकता है ॥ ३३॥ एलपत्रत्वचोऽर्धाक्षाः पिप्पल्यर्धपलं तथा ॥२८॥ सितामधुकखर्जूरमृद्वीकानां पलं पलम् ।
नस्यम् । संचूर्ण्य मधुना युक्ता गुटिकाः कारयेद्भिषक् ॥२९॥ ब्राणप्रवृत्ते जलमेव देयं अक्षमात्रां ततश्चैकां भयक्षेन्ना दिने दिने ।
सशर्करं नासिकया पयो वा। कासंश्वासंज्वरं हिक्कां छर्दि मूर्छा मदं भ्रमम्॥३०॥ द्राक्षारसं क्षीरघृतं पिबेद्वा रक्तनिष्ठीवनं तृष्णां पार्श्वशुलमरोचकम् ।।
सशर्करं चक्षुरसं हितं वा ॥ ३४ ॥ शोथप्लीहाढयवातांश्च स्वरभेदं क्षतक्षयम् ॥ ३१ ॥ नस्यं दाडिमपुष्पोत्थो रसो दूर्वाभवोऽथवा । गुटिका तर्पणी वृष्या रक्तपित्तं च नाशयेत् । । आम्रास्थिजः पलाण्डोर्वा नासिकातरक्तजित् ॥३५
छोटी इलायची के दाने, तेजपात, दालचीनी प्रत्येक ६ माशे. नाकसे बहते हुए रक्तको रोकनेके लिये नासिकासे-शक्करके छोटी पीपल २ तोला, मिश्री, मोरेठी, खजर अथवा छहारा. सहित जल, अथवा दूध, अथवा अंगुरका रस, अथवा शक्कर मुनक्का प्रत्येक ४ तोला-सब चीजें महीन पीस हदमशें मिलाकर मिला दूध, व घी, अथवा ईखका रस, अथवा अनारके फूलोंका गोली बना लेनी चाहिये । इसकी १ तोलेकी मात्रा प्रतिदिन | रस, अथवा दूर्वाका रस, अथवा आमकी गुठलीका रस, या लेना चाहिये । यह कास, श्वास, ज्वर, हिक्का, वमन, मी, प्याजका रस पीना चाहिये । अर्थात् नस्य लेना चाहिये ३४।३५ मद, भ्रम, रक्तपित्त, प्यास, पसलियोंका दर्द, अरुचि, सूजन,
उत्तरवस्तिः । प्लीहा, ऊरुस्तम्भ, स्वरभेद तथा क्षतक्षयको नष्ट करती है और तर्पण तथा वाजीकर है ॥ २८-३१॥
मेढ़गेऽतिप्रवृत्ते तु बस्तिरुत्तरसंज्ञितः ।
शृतं क्षीरं पिबेद्वापि पश्चमूल्या तृणाह्वया ॥३६॥ पृथ्वीकायोगः।
लिङ्गसे अधिक रक्त आनेपर उत्तरवस्ति देना चाहिये । लोहगन्धिनि निःश्वासे उद्गारे रक्तगन्धिनि ॥ ३२॥ अथवा तृणपञ्चमूल (कुश, काश, शरधानकी जड़ और ईखकी पृथ्वीका शाणमात्रां तु खादेद् द्विगुणशर्कराम्। जड़) से सिद्ध दूध पीना चाहिये ॥ ३६॥ श्वास तथा डकारमें लोहकी गन्ध आनेपर बड़ी इलायचीका चूर्ण ३ माशे द्विगुण शक्कर मिलाकर फाकना चाहिये ॥ ३२ ॥
दूर्वायं घृतम् ।
दूर्वा सोत्पलकिजल्का मञ्जिष्ठा सैलवालुका । १ भावनाविधिः-" दिवा दिवातपे शुष्क रात्रौ रात्री च
सिता शीतमुशीरं च मुस्तं चन्दनपद्मको ।। ३७ ॥ बासयेत् । शुष्कं चूर्णीकृतं द्रव्यं सप्ताहं भावनाविधिः ॥ द्रव्येण
विपचेत्कार्षिकैरेतेः सर्पिराजं सुखाग्निना। यावता द्रव्यमेकीभूयाद्रेतां व्रजेत् । तावत्प्रमाणं निर्दिष्टं भिषग्भि- तण्डुलाम्बु त्वजाक्षीरं दत्त्वा चैव चतुर्गुणम् ॥३८॥ र्भावनाविधौ ॥".
तत्पानं वमतो रक्तं नावनं नासिकागते । २ इससे सूखी चीजें कूट कपड़छानकर लेना चाहिये ।।
कर्णाभ्यां यस्य गच्छेत्तु तस्य कौँ प्रपूरयेत् ॥३९॥ गीली चीजें सिलपर महीन पीसकर मिलाना चाहिये ।
चक्षुःस्राविणि रक्ते तु पूरयेत्तेन चक्षुषी । ३ यहांपर श्रीशिवदासजीने 'पृथ्वीका' शब्दसे काला जीरा |
मेढ़पायुप्रवृत्ते तु बस्तिकर्मसु योजयेत् ॥ ४०॥ लिखा है। वह भी इस लिये कि टीकाकारोंने नहीं व्याख्यान |
रोमकूपप्रवृत्ते तु तदभ्यंगे प्रयोजयेत् ॥४१॥ किया। आगे आप लिखते हैं कि यद्यपि काला जीरा उष्ण | दूध, कमलकी केशर, मजीठ, एलवालुक, सफेद दूब, कपूर, होता है, पर द्विगुण शक्कर मिलनेके कारण अथवा प्रभावसे खस, नागरमोथा, सफेद चन्दन, पद्माख-प्रत्येक एक एक तोला रोगनाशक होता है। पर इलायचीका प्रयोग क्यों न किया ले कल्क बना करकसे चतुर्गुण बकरीका घी और घीसे . चतुर्गुण जाय ? इसका कुछ हेतु आपने नहीं लिखा, अतः मैंने बड़ी दूध व चतुर्गुण चावलका जल मिलाकर पकाना चाहिये । यह इलायची ही लिखना उचित समझा।
|घृत जिसे रकका वमन होता हो, उसे पिलाना चाहिये। जिसके