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(२६२) चक्रदत्तः।
[ नेत्ररोगाwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwशिराहर्ष में शहद के साथ राब अथवा शहदके साथ रसौंत
पुष्पचिकित्सा। अथवा शहदके साथ काशीस लगाना चाहिये ॥६६॥
क्षुण्णपुन्नागपत्रेण परिभावितवारिणा। व्रणशुक्रचिकित्सा।
श्यामाकाथाम्बुना वाथ सेचनं कुसुमापहम् ॥७४॥ प्रणशुक्रप्रशान्त्यर्थ षडङ्ग गुग्गुलुं पिबेत् ॥ दक्षाण्डत्वछिलाशंखकाचचन्दनगैरिकैः । कतकस्य फलं शङ्ख तिन्दुकं रूप्यमेव च ॥ ६७ ॥ तूल्यैर जनयोगोऽयं पुष्पार्मादिविलेखनः ॥ ७५ ॥ कांस्ये निघृष्ट स्तन्येन क्षतशुक्रातिरागजित् । शिरीषबीजमरिचपिप्पलीसैन्धवैरपि । चन्दनं गैरिकं लाक्षामालतीकलिका समा॥ ६८ ॥ शुक्र प्रघर्षण कार्यमथवा सैन्धवेन च ॥७६ ॥ व्रणशुक्रहरी वर्तिः शोणितस्य प्रसादनी।
कुटे पुन्नागके पत्तोंसे भावित जलसे अथवा निसोथके क्वाथसे शिरया वा हरेद्रक्तं जलोकोभिश्व लोचनात् ॥६९॥ सिञ्चन करनेसे फूली कटती है। तथा मुरगकि अण्डेका छिल्का, अक्षमज्जाजनं सायं स्तन्येन शुक्रनाशनम् । | मैनशिल, शंख, काच, चंदन व गेरू समान भाग ले अजन एकं वा पुण्डरीकं च छागीक्षीरावसेचितम् ॥७०॥ बनाकर लगानेसे फूली, अर्म आदि कटते हैं । तथा सिरसाके रागाझुवेदना हन्यात्क्षतपाकात्ययाजकाः ।
बीज, मिरच, छोटी पीपल व सेंधानमककी वीसे अथवा केवल तुत्थकं वारिणा युक्तं शुक्रं हन्त्यक्षिपूरणात् ॥७१॥ | संघ
सेंधानमकसे फूलीमें घिसना चाहिये ॥ ७४-७६ ॥ - व्रणशुक्रकी शान्तिके लिये षडंग गुग्गुलु पीना चाहिये । तथा
करञ्जवतिः। निर्मली, शंख, तेन्दू और चान्दीका भस्म इनको कांसेके बहुशः पलाशकुसुमस्वरस: परिभाविता जयत्यचिरात्। बर्तनमें दूधके साथ घिसकर लगाना चाहिये । इससे व्रणशुक्र, नक्ताह्वबीजवर्तिः कुसुमचयं दृक्षु चिरजमपि ॥७७॥ पीड़ा व लालिमा मिटती है। व चन्दन, गेरू, लाख तथा काके बीजोंके चूर्णमें ढाकके फूलोंके स्वरससे यथाविधि चमेलीकी कली समान भाग ले बत्ती बना नेत्रमें लगानेसे अनेक भावना देकर बनायी गयी वर्ति पुरानी और बड़ी फूलीको व्रणशुक्र नष्ट करती तथा नेत्र स्वच्छ करती है। अथवा फस्त | भी नष्ट करती है ॥ ७७ ॥ खोलकर या जोंक लगाकर नेत्रसे रक्त निकालना चाहिये । तथा
सैन्धवादिवतिः। सायङ्काल बहेड़ेकी मींगीको स्त्रीदुग्धमें घिसकर आजनेसे शुक्र नष्ट होता है । तथा केवल कमलके पुष्पको बकरी के दधसे| सैन्धवत्रिफलाकृष्णाकटुकाशङ्खनाभयः। सिक्तकर सिञ्चन करनेसे लालिमा, आंसू, पीड़ा, व्रण, पाकात्यय
सताम्ररजसो वतिः पिष्टा शुक्रविनाशिनी ॥७८॥ तथा अजका आदिको नष्ट करता है। अथवा जलके साथ तूति
सेंधानमक, त्रिफला, छोटी पीपल, कुटकी, शंखनाभी और थाको घिसकर नेत्रमें छोड़नसे शुक नष्ट होता है ॥६७-७१॥ ताम्रभस्म इन ओषधियोंके चूर्णको पानीके साथ घोटकर बनायी
बत्तीको लगानेसे फूली नष्ट होती है ॥ ७८ ॥ फेनादिवतिः।
चन्दनादिचूर्णाञ्जनम् । समुद्रफेनदक्षाण्डत्वक्सिन्धूत्थैः समाक्षिकैः। ।
चन्दनं सैन्धवं पथ्या पलाशतरुशोणितम् । शिबीजयुतिः शुक्रन्नी शिवारिणा ।। ७२॥।
गर्मादिविलेखनम् ॥ ७९॥ समुद्रफेन, मुर्गीके अण्डेका छिल्का, सेंधानमक, शहद और |
चन्दन, सेंधानमक, छोटी हरें, ढाकका गोंद इनके सहिजनके बीजका चूर्ण कर सहिजनके रससे बनायी वर्ति रोना
। बनाया वति | उत्तरोत्तर भागवृद्ध चूर्णका अन्जन फूली तथा अर्म आदिको शुक्रको नष्ट करती है ॥७२॥
काटता है॥७९॥ आश्योतनम् ।
दन्तवतिः। धात्रीफलं निम्बपटोलपत्रं
दन्तैर्हस्तिवराहोष्ट्रगवावाजखरोद्भवैः । यष्टयाह्वलोध्र खदिरं तिलाश्च ।
सशंखमौक्तिकाम्भोधिफेनैमरिचपादिकैः। काथः सुशीतो नयने निषिक्तः
क्षतशुक्रमपि व्याधि दन्तवर्तिनिवर्तयेत् ॥ ८॥ सर्वप्रकारं विनिहन्ति शुक्रम् ॥ ७३॥
हाथी, सुअर, ऊँट, घोड़ा, बकरी और गधाके दाँत, आंवला, नीमकी पत्ती, परवलकी पत्ती, मौरेठी, लोध, शंख, मोती व समुद्रफेन प्रत्येक समान भाग तथा सबसे कथा व तिलके शीतकषायको नेत्रमें छोड़नसे सब प्रकारके शुक्र चतुर्थांश मिर्च मिला धोट बत्ती बनाकर आँखमें लगानेसे नष्ट होते हैं ॥ ५३॥
वणशुक्र भी नष्ट होता है ॥८॥