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धिकारः]
भाषाटीकोपतः।
( १६९)
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यदि उपरोक्त उपायोंसे अश्मरी शान्त न हो, तो शल्य- पुराने सावां कोदव, जङ्गली कादव, गेहूं, चना, अर. शास्त्रवेत्ता प्रत्याख्यान कर शस्त्र द्वारा उसे निकाले । गुदामें हर और कुथली प्रमेहवालोंके लिये सदा पथ्य हैं। इसी २ अंगुली छोड़कर अश्मरीको गुदा व लिङ्गके मध्यमें लावे । प्रकार जांगल प्राणियोंका मांसरस, तिक्तशाक, यवके पदार्थ फिर सेवनीसे वाम और यवमात्र छोड़ अश्मरीके बराबर व्रण- तथा मधु हितकर है ॥१॥कर अश्मरीको निकाल दे। ठीक ज्ञान न होनेके कारण यदि
अष्टमेहापहा अष्टौ काथाः। पथरी न हुई तो व्रण करनसे बस्ति कट जायगी और रोगी मर जायगा, अतः अच्छी तरह निश्चय कर शस्त्रकर्म करना चाहिये।
पारिजातजयानिम्बवहिगायत्रीणां पृथक् ॥२॥ यदि अश्मरी निकाले ही तो समग्र निकाल ले। तथा जो रक्त पाठायाः सागुरोः पीताद्वयस्य शारदस्य च। जमा हो उसे भी साफ कर दे। (तथा अश्मरी निकाल देनेपर जलेक्षुमद्यसिकताशनैर्लवणपिष्टकान् । गरम जलमें बैठावे ) तथा मूत्रशुद्धिके लिये गुड़ खिलावे ।। सान्द्रमेहान्क्रमाद् नन्ति ह्यष्टौ काथा:समाक्षिकाः।३ फिर घावमें शहद व घी लगावे तथा मुत्रशोधक द्रव्योंसे
पारिजात, अरणी, नीम, चीतकी जड़, कत्था, अगुरु, और सिद्ध पेया घी मिलाकर ३ दिनतक पिलावे, फिर दूधके साथ
पाढका क्वाथ तथा हल्दी व दारुहल्दी (शरदतुमें उत्पन्न) का पथ्य हलका भात आदि १० दिनतक खिलावे तथा
क्वाथ इस प्रकार बताये गये ८ क्वाथ क्रमशः जलमेह, इक्षुमेह, यव व शहदसे बनायी पोटलीसे स्वेदन करे तथा कषाय
मद्यमेह, सिकतामेह, शनैर्मेह, लवणमेह, पिष्टमेह और सान्द्रमेहरस युक्त काढ़ोंसे व्रणको साफ करे तथा पुण्डरिया, मजीठ,
को नष्ट करते हैं ॥ २ ॥ ३ ॥ मौरेठी व लोध्रसे लेप करे तथा हल्दीके सहित इन्हीं द्रव्योंसे सिद्ध घृतकी मालिश करे । सात दिनतक ऐसा करनेसे
शुक्रमेहहरः क्वाथः। यदि व्रण ठीक न हो तो उसे जला देना चाहिये । यदि भाग्य
दूर्वाकशेरुपूतीककुम्भीपल्वलशैवलम् । वश पथरी नाभीमें अटक गयी हो, तो काटकर निकालना
जलेन कथितं पीतं शुक्रमेहहरं परम् ॥ ४॥ चाहिये ॥४८-५४॥ इत्यश्भर्यधिकारः समाप्तः।
दूब, कशेरू, पूतिकरज, जलकुम्भी तथा सेवार इनका काथ
शुक्रमेहको नष्ट करता है ॥ ४ ॥ अथ प्रमेहाधिकारः।*
फेनमेहहरः क्वाथः। त्रिफलारवधद्राक्षाकषायो मधुसंयुतः।
पीतो निहन्ति फेनाख्यं प्रमेहं नियतं नृणाम् ॥५॥ पथ्यम् ।
त्रिफला, अमलतासके गूदा तथा मुनक्केके क्वाथमें शहद श्यामाककोद्रवोहालगोधूमचणकाढकी। डालकर पनिसे फेनमेह नष्ट होता है ॥५॥ कुलत्थाश्च हिता भोज्ये पुराणा मेहिनां सदा ॥१॥
कषायचतुष्टयी। जाङ्गलं तिक्तशाकानि यवान्नं च तथा मधु ।
लोधाभयाकट्फलमुस्तकानां * कुशावलेहः-" वीरणश्च कुशः काशः कृष्णक्षुः खाग
विडङ्गपाठार्जुनधन्वनानाम् । डस्तथा । एतान्दशपलान्भागाजलद्रोणे विपाचयेत् । अष्टभागा- कदम्बशालार्जुनदीप्यकानां वशेष तु कषायमवतारयेत् । अवतार्य ततः पश्चाचूर्णा- विडङ्गदाधिवशल्लकीनाम् ॥६॥ नीमानि दापयेत् ॥ मधुकं कर्कटीबीजं कर्काळं पुषं तथा । शुभामलकपत्राणि एलात्वनागकेशरम् । वरुणामृताप्रियंगूणां नागकेशर, वरुणाकी छाल, गुर्च, तथा प्रियंगु प्रत्येक १ प्रत्येकं चाक्षसंम्मितम् । प्रमेहान्विशतिं चैव मूत्राघातं तथा-तोलेका चूर्ण मिलाकर उतार लेना चाहिये । यद्यपि इसमें श्मरीम् ॥ वातिकं पैत्तिकं चैव लैष्मिकं सान्निपातिकम् । शक्करका वर्णन नहीं है । पर वैद्यलोग अवलेह पकाते समय हन्त्यरोचकमेवोग्रं तुष्ठिपुष्टिकरस्तथा ॥" खश, कुश, काश,६४ तोला शक्कर भी डालते हैं । यह २० प्रकारके काली, ईख, रामशेर प्रत्येक द्रव्य ८ छ• जल २५ सेर ९ प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी, तथा हर प्रकारके अरोचक, नष्ट छ. ३ तोला मिलाकर पकाना चाहिये, अष्टमांश शेष करता है । इसकी मात्रा ६ माशेसे २ तोले तक है। रहनेपर काढा उतारे, छानकर पुनः पाक करना चाहिये ।(यह प्रयोग किसी पुस्तकमें है, किसी में नहाँ और इसके गाढा हो जानेपर मौरेठी, ककड़ीके बीज, पेठेके बीज, खीराके ऊपर शिवदासजीने टीका भी नहीं की, अतः टिप्पणी रूपमें बीज, वंशलोचन, आंवला, तेजपात, इलायची, दालचीनी, लिखा गया है)।
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