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(२५८) चक्रदत्तः।
नेत्ररोगान्न्न्न्न्न्न् सेंधानमक, दारुहल्दी, गेरू, छोटी हर्र व रसौतको पीसकर हल्दी, दारुहल्दी, मौरेठी, हर्र व देवदारुको पीसकर नेत्रके बाहर लेप लगानेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं। इसी बकरीके दूधमें लगाना अभिष्यन्दके लिये हितकर प्रकार सावर लोधको घीमें भूनकर शलाकासे नेत्रके बाहर लेप है ॥ १९ ॥ लगाना चाहिये । इसी प्रकार हर्रको धीमें भूनकर बिडालक लेप लगाना चाहिये । शालाक्य तन्त्रमें नेत्रोंके बाहर लेप लगाना - गैरिकाद्यञ्जनम् । "बिडालक " कहा जाताहै। अथवा गेरू, चन्दन, सोंठ, खड़िया गैरिक सैन्धवं कृष्णां नागरं च यथोत्तरम् । और वच समान भाग ले नेत्रके बाहर लेप करना चाहिये । इसी| पिष्ट द्विरंशतोऽद्भिर्वा गुडिकाजनमिष्यते ॥ २० ॥ प्रकार भुई आँवलेको ताम्रके बर्तनमें सेंधानमक और काजीके | गेरू १ भाग, सेंधानमक २ भाग, छोटी पीपल ४ भाग, साथ घिसकर गाढा हो जानेपर बाहर लेप करनेसे नेत्रपीड़ा शान्त सोंठ ८ भाग इनको जलमें पीस गोली बनाकर अञ्जन लगाना होती है ॥९-१३॥
चाहिये ॥२०॥ आश्च्योतनम् ।
पित्तजनेत्ररोगे आश्च्योतनम् । आश्च्चोतनं मारुतजे काथो बिल्वादिभिर्हितः। | प्रपौण्डरीकयष्टयाह्वनिशामलकपद्मकैः । कोष्णः सैरण्डबहतीतर्कारीमधुशिग्रुभिः ॥ १४ ॥ शीतैर्मधुसितायुक्तैः सेकः पित्ताक्षिरोगनुत् ।।२१।। एरण्डपल्लवे मूले त्वचि चाजं पयः शृतम् । । द्राक्षामधुकमञ्जिष्टाजीवनीयैः शृतं पयः। कण्टकार्याश्च मूलेषु सुखोष्णं सेचने हितम्॥ १५॥ प्रातराश्च्योतनं पथ्यं शोथशूलाक्षिरोगिणाम् ॥२२॥ वातजन्य नेत्ररोगमें बिल्वादि पञ्चमूल, एरण्ड, बड़ी कटेरी, पुण्डारया, मौरेठी, हल्दी, आंवला व पद्माखके शीतकषाअरणी, व मीठे सहिजनेके क्वाथका गुनगुना गुनगुना आश्च्योतन | यमें शहद व शक्कर मिलाकर नेत्रमें छोड़नेसे पित्तज-नेत्ररोग करना चाहिये । एरण्डके पत्ते, छाल और जड़से सिद्ध बकरीके | शान्त होता है । अथवा मुनक्का, मौरेठी, मजीठ और जीवनीय. दूध अथवा कटेरीकी जड़से सिद्ध गुनगुने गुनगुने दूधका सिंचन | गणकी औषधियोंसे सिद्ध दूध प्रातःकाल नेत्रमें छोडनेसे नेत्रों का करना चाहिये ॥ १४ ॥१५॥
शोथ व शूल नष्ट होता है ॥२१॥ २२ ॥ ___ अञ्जनादिसमयनिश्चयः।
लोध्रपुटपाकाः। सम्पकेऽक्षिगदे कार्य चालनादिकमिप्यते ।।
निम्बस्य पत्रैः परिलिप्य लोधं प्रशस्तवमता चाक्ष्णोः संरम्भाश्रुप्रशान्तता ॥१६॥
स्वेदोऽमिना चूर्णमथापि कल्कम् । मन्दवेदनता कण्डूः पक्काक्षिगदलक्षणम् ।
आश्च्योतनं मानुषदुग्धयुक्तं अञ्जनादिविधिश्वाने निखिलेनाभिधास्यते ॥१७॥
पित्तास्रवातापहमध्यमुक्तम् ॥ २३ ॥ पक नेत्रदोषोंमें अजनादि लगाना चाहिये । विनि- लोधके कल्क अथवा चूर्णके ऊपर नीमकी पतीका लेप कर पोका स्वच्छ होना नेत्रों की लालिमा व आंसुआंका कम अग्निमें पका स्त्रीदुग्धमें मिलाकर नेत्रमें आश्च्योतन करना पित्तज होना, पीड़ा कम होना, खुजलीका होना, पक्क नेत्ररोगके
और वातज नेत्ररोगोंको शान्त करता है ॥ २३॥ लक्षण हैं । ऐसी अवस्थाके लिये आगे अजनादि लिखते हैं ॥ १६ ॥ १७॥
कफजचिकित्सा। बृहत्यादिवतिः।
कफजे लङ्घनं स्वेदो नस्यं तिक्तान्नभोजनम् । बृहत्येरण्डमूलत्वक् शिप्रोर्मूलं ससैन्धवम् । तीक्ष्णैः प्रधमनं कुर्यात्तीक्ष्णैश्चैवोपनाहनम् ॥ २४ ॥ अजाक्षीरेण पिष्टं स्याद्वर्तिर्वाताक्षिरोगनुत् ॥१८॥
फणिज्जकास्फोतकपीतबिल्वपत्तूरपीलूसुरसार्जभङ्गैः।
स्वेदं विदध्यादथवा प्रलेपं बर्हिष्ठशुण्ठीसुरदारुकुष्ठः बड़ी कटेरी, एरण्डकी जड़की छाल, सहिजनकी जड़की छाल |
शुण्ठीनिम्बदलैः पिण्डः सुखोष्णैःस्वल्पसैन्धवैः। व सेंधानमक इन सबको पीसकर बकरीके दूधमें बत्ती बनाकर
धार्यश्चक्षुषि संलेपाच्छोथकण्डूरुजापहः ॥२६॥ वातज-नेत्ररोगमें लगाना चाहिये ॥१८॥
वल्कलं पारिजातस्य तैलकाजिकसैन्धवम् । हरिद्राद्यञ्जनम्।
| कफोभूताक्षिशुलनं तरुघ्नं कुलिशं तथा ॥२७॥ हरिद्रे मधुकं पथ्यां देवदारु च पेषयेत् । आजेन पयसा श्रेष्टमभिण्यन्दे तदजनम ॥१९॥ कपिस्थ इति पाठान्तरम् । तम्मते कैथाकी छाल ।