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धिकार
. मापाटीकोपेतः।
(१६५)
आतिव्यवायअमूत्राघातचिकित्सा। है। इसके प्रयोगसे स्त्रीको गर्म प्राप्त होता है तथा रक्तदोष, खीणामतिप्रसंगेन शोणितं यस्य सिच्यते ॥ १५ ॥ चाहिये ॥१८-२५॥
योनिदोष और मूत्रदोषोंमें इसका उपयोग करना मैथुनोपरमश्वास्य बृहणीयो हितो विधिः ।
इति मुत्राघाताधिकारः समाप्तः। स्वगुप्ताफलमृद्वीकाकृष्णेक्षुरसितारजः ॥ १६ ॥ समांशमर्धभागानि क्षीरक्षौद्रघृतानि च ।
अथाश्मय॑धिकारः। सर्व सम्यग्विमथ्याक्षमानं लीढ्वा पयः पिबेत् १७| हन्ति शुक्राशयोत्थांश्च दोषान्वन्ध्यासुतप्रदम् ।। जिसको अधिक स्त्रीगमन करनेसे रक्त आता है, उसे मैथुन |
वरुणादिकाथः। बन्द करना तथा बृहंण (बलवीर्यवर्धक ) उपाय करना चाहिये।
वरुणस्य त्वचं श्रेष्ठां शुण्ठीगोक्षुरसंयुताम् । काँचके बीज, मुनक्का, छोटी पीपल, तालमखानाके बीज |
यवक्षारगुडं दत्त्वा क्वाथयित्वा पिबेद्धिताम् ॥१॥ तथा मिश्रीका चूर्ण प्रत्येक समान भाग, सबसे आधे प्रत्येक |
अश्मरी वातजा हन्ति चिरकालानुबन्धिनीम् । दूध, घी व शहद मिला मथकर १ तोलाकी मात्रासे चाटकर | ऊपरस दूध पीनेसे शुक्राशयके दोष नष्ट होते हैं तथा वंध्या- वरुणाकी उत्तम छाल, सोंठ व गोखुरूका काथ बना गुड़ ओंके भी सन्तान उत्पन्न होती है ॥ १५-१७ ॥
व जवाखार छोड़कर पीनेसे पुरानी वातज अश्मरी नष्ट
होती है॥१॥चित्रकाद्यं घृतम् । चित्रकं शारिवा चैव बला कालानुशारिवा ॥१८॥
वीरतरादिक्वाथः। द्राक्षा विशाला पिप्पल्यस्तथा चित्रफला भवेत् । वीरतरः सहचरो दर्भो वृक्षादनी नलः ॥२॥ तथैव मधुकं दद्याद्दद्यादामलकानि च ॥ १९॥
गुन्द्राकाशकुशावश्मभेदमोरटटुण्टुकाः। घृताढकं पचेदेभिः कल्कैरक्षसमन्वितैः ।
कुरुण्टिका च वशिरो वसुकः सानिमन्थकः ॥३॥ क्षीरद्रोणे जलद्रोणे तत्सिद्धमवतारयेत् ॥२०॥ इन्दीवरी श्वदंष्ट्रा च तथा कापोतवक्रकः । शीतं परिसुतं चैव शर्कराप्रस्थसंयुतम् ।
वीरतरादिरित्येष गणो वातविकारनुत् ॥४॥ तुगाक्षीर्याश्च तत्सर्व मतिमान्प्रतिमिश्रयेत् ।। २१॥
अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छ्राघातरुजापहः।। ततो मितं पिबेत्काले यथादोषं यथाबलम् । वातरेताः पित्तरेताः श्लेष्मरेताश्च यो भवेत् ॥२२॥
शरकी जड़, पीले फूलका पियावासा, दाभ, वांदा, नर
सल, गुर्च, काश, कुश, पाषाणभेद, ईखकी जड़, सोनापाठा, रक्तरेता प्रन्थिरेताः पिबदिच्छन्नरोगताम् ।
| नीले फूलका पियावासा, गजपीपल, अगस्त्यकी छाल, जीवनीयं च वृष्यं च सपिरेतन्महागुणम् ॥ २३ ॥ अरणी, नीलोफर, गोखुरू, और काकमाची यह “वीरतरादिगण" प्रजाहितं च धन्यं च सर्वरोगापहं शिवम्
| वातरोग, अश्मरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघातकी पीडाको नष्ट सर्पिरेतत्प्रयुखाना स्त्री गर्भ लभतेऽचिरात् ॥२४॥ करता है ॥ २-४ ॥अमृग्दोषाजयेच्चैव योनिदोषांश्च संहतान् । .
शुण्ठयादिक्वाथः। मूत्रदोषेषु सर्वेषु कुर्यादेतचिकित्सितम् ॥ २५ ॥ शुण्ठथग्निमन्थपाषाणशिग्रुवरुणगोक्षुरैः ॥ ५॥ चीतकी जड़, शारिवा, खरेटी, काली शारिवा, मुनक्का,
अभयारग्वधफलैः काथं कुर्याद्विचक्षणः । इन्द्रायनकी जड़, छोटी पीपल, ककड़ीके बीज, मौरेठी तथा रामठक्षारलवणचूर्ण दत्त्वा पिबेन्नरः ॥ ६ ॥ आंवला प्रत्येक एक एक तोलाभर ले कल्ककर २५६ तोलेभर घृत एक द्रोण दूध तथा एक द्रोण जल मिला पकावे, पाक सिद्ध | १"कपोतवक्रक"से शिरीषसदृश स्वल्पपत्रक स्वल्पविटप हो जानेपर उतार छानकर १ प्रस्थ मिश्री तथा एक प्रस्थ शिवदासजी बतलाते है । वैद्यकशब्दसिन्धुमें वीरतरादिगण वंशलोचन मिलाना चाहिये । इसकी मात्रा युक्त अनुपानके साथ | "काकमाची" ही लिखा है, अतः यही यहां लिखा गया है। पर सेवन करनेसे बात, पित्त, कफसे दूषित शुक्र रक्त तथा गाठि- वाग्भटमें इसी गणमें "अर्जुन" आया है यहां अर्जुनका नाम नहीं योंसे युक्त शुक्र शुद्ध होता है । यह जीवनीय बाजीकर है। मेरे विचारसे अर्जुन भी कपोतवक्त्रका अर्थ हो सकता है। सन्तानको बढानेवाला तथा समस्त रोगों को नष्ट करनेवाला अथवा "कपोतवर्णिका पाठ कर इलायचीअर्थकरना चाहिय।।