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चक्रदत्तः ।
अश्मरीमूत्रकृच्छ्रन्नं पाचनं दीपनं परम् । हन्यात्कोष्ठाश्रितं वातं कटयूरुगुदमेढ्रगम् ॥ ७ ॥ सोंठ, अरणी, पाषाणभेद, सहिजनकी छाल, वरुणाकी छाल, गोखरू, बड़ी हरोंका छिल्का तथा अमलतासका गूदा प्रत्येक समान भाग ले काथ कर भुनी हींग, जवाखार और नमक डालकर पीनेसे अश्मरी, मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता, पाचन और दीपन होता तथा कोष्ठाश्रित, कटि, ऊरु, गुदा व लिंगगत वायु नष्ट होते हैं ॥ ५-७॥
पाषाणभेद, अगस्त्य, गजपीपल, काञ्चनार खट्टे पत्तोंवाला, शतावरी, गोखरू, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, मकोय, नीली कटसरैया, लाल कचनार की छाल, खरा, नागकेशर, वांदा, सोनापाठा, वरुणाकी छाल, शाकवृक्ष ( सहिजन ) के फल, यव, कुलथी, बेर, तथा निर्मलीके काथमें सिद्ध घृत कादि गणका प्रतिवाप छोड़कर सेवन करनेसे वातज अश्मरी शीघ्र ही नष्ट होती है । इसी वातनाशक वर्गमें क्षार, यवागू, पेया, काथ, क्षीर तथा भोजन बनाना चाहिये ॥ ८-११॥
ऊषकादिगणः ।
ऊषकं सैन्धवं हिगु काशीसद्वयगुग्गुलू | शिलाजतु तुत्थकं च ऊषकादिरुदाहृतः ॥ १२ ॥ ऊषकादिः कफं हन्ति गणो मेदोविशोधनः । अश्मरीशर्करामूत्रशूलघ्नः कफगुल्मनुत् ॥ १३ ॥
[ अश्मर्य
पाषाणभेदाद्यं घृतम् ।
कुश, काश, शर, ग्रन्थिपर्ण, रोहिष घास, ईखकी जड़, पाषाणभेद, दर्भ, विदारीकन्द, वाराही कंद, धानकी जड़, गोखुरू, सोनापाठा, पाढला, पाढ़ी, लाल चन्दन, कटसरैया, पाषाणभेदो वसुको वशिरोऽश्मन्तकं तथा । दोनों पुनर्नवा तथा सिरसाकी छाल समान भाग ले क्वाथ बना शतावरी श्वदंष्ट्रा च बृहती कण्टकारिका ॥ ८ ॥ क्वाथसे चतुर्थांश घी मिला पका शिलाजीत, मौरेठी व नीलोफरके कपोतवार्तगलकाञ्चनोशीरगुल्मकाः । बीजका प्रतिवाप छोड़कर अथवा खीरेके बीज व खर्बुजेके बीजों का प्रतीवाप छोड़कर सेवन करनेसे पित्तज अश्मरी शान्त | होती है । तथा यह गण पित्तनाशक है, इसमें क्षार, यवागू, पेया, काढ़े, दूध अथवा भोजन भी बनाना चाहिये ॥१४- १७॥
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वृक्षादनी भल्लुकश्च वरुणः शाकजं फलम् ॥ ९ ॥ यवाः कुलत्थाः कोलानि कतकस्य फलानि च ऊषकादिप्रतीवापमेषां काथे शृतं घृतम् ॥ १० ॥ भिनत्ति वातसम्भूतामश्मरी क्षिप्रमेव तु । क्षारान्यवागूः पेयाश्च कषायाणि पयांसि च ॥ भोजनानि च कुर्वीत वर्गेऽस्मिन्वातनाशने ॥ ११ ॥
कफजाइमरीचिकित्सा |
भल्लूकः पाटली पाठा पत्तरोऽथ कुरुण्डिका । पुनर्नवे शिरीषश्च कथितास्तेषु साधितम् ॥ १५ ॥ घृतं शिलाह्वमधुकबीजैरिन्दविरस्य च ।
रेहू मिट्टी, सेंधानमक, हींग, दोनों कशीस, गुग्गुलु, शिलाजीत, तूतिया - यह " ऊषकादि गण" कहा जाता है। यह कफ, मेद, पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र व कफज गुरुमको नष्ट करता है ॥ १२ ॥१३॥
पुर्वारुकाणां वा बीजेश्वावापितं श्रुतम् ॥ १६ ॥ भिनत्ति पित्तसम्भूतामश्मरी क्षिप्रमेव तु । क्षारान्यवागूः पेयाश्च कषायाणि पयांसि च । भोजनानि च कुर्वीत वर्गेऽस्मिन्पित्तनाशने ॥ १७ ॥
गणे वरुणकादी च गुग्गुल्वेलाहरेणुभिः । कुष्ठमुस्ताहमरिचचित्रकैः ससुराह्वयैः ॥ १८ ॥ एतैः सिद्धमजा सर्पिरूषकादिगणेन च । भिनत्ति कफसम्भूतामश्मरीं क्षिप्रमेव तु ॥ १९ ॥ क्षारान्यवागूः पेयाश्च कषायाणि पयांसि च । भोजनानि प्रकुर्वीत वर्गेऽस्मिन्कफनाशने ॥ २० ॥ वहणादि गण काथमें गुग्गुलु, इलायची, सम्भालूके बीज, कूठ, मोथा, मिर्च, चीतकी जड़, देवदारु तथा ऊषकादि गणका कल्क छोड़कर सिद्ध किया गया बकरीका घृत कफजन्य अश्मरीको शीघ्र ही नष्ट करता है । तथा इसी कफनाशक वर्ग में क्षार, यवागू, पेया, काढे और दूध तथा भोजन आदि बनाकर | देना चाहिये ॥ १८-२० ॥
वरुणादिगणः । वरुणोऽर्तगलः शिश्रुतर्कारीमधुशिग्रुकाः ।
मेषशृङ्गीकरञ्जौ च बिम्ब्यग्निमन्थमोरटाः ॥ २१ ॥ शैरीयो वशिरो दर्भों वरी वसुकचित्रकी । बिल्वं चैवाजशृङ्गी च बृहतीद्वयमेव च ॥ २२॥ वरुणादिगणो ह्येष कफमेदो निवारणः । विनिहन्ति शिरःशूलं गुल्माद्यन्तरविद्रधीन् ॥ २३ ॥ वरुणाकी छाल, नीला कटसरैया, सहिजन, अरणी, मीठा कुशः काशः शरो गुल्मइत्कटो मोरटोऽश्मभित् । सहिजन, मेढाशिंगी, कक्षा, कुन्दरु, अरणी, मोरट, पीला दर्भों विदारी बाराही शालिमूलं त्रिकण्टकः ||१४|| | कटसरैया, गजपीपल, दर्भ, शतावरी, अगस्त्य, त्रीतकी जड़,
कुशाद्यं वृतम् ।