________________
( ३०२ )
चक्रदन्तः ।
अभयाप्रयोगः । सिन्धूत्थशर्कराशुण्ठीकणामधुगुडैः क्रमात् । वर्षादिष्वभया सेव्या रसायनगुणैषिणा ॥ ४ ॥ रसायनकी इच्छा रखनेवालेको बड़ी हर्रका सेवन वर्षाकालमें सेंधानमकके साथ, शरद ऋतु में शक्कर के साथ, हेमन्त में सोंठ के साथ, शिशिरमें पिप्पलकिं साथ और वसन्तमें शहदके तथा ग्रीष्म में गुड़के साथ करना चाहिये ॥ ४ ॥
लौह त्रिफलायोगः ।
त्रै फलेनायसी पात्री कल्केनालेपयन्नवाम् । तमहोरात्रिकं लेपं पिबेत्क्षौद्रोदकाप्लुतम् ॥ ५ ॥ प्रभूत स्नेहमशनं जीर्णे तस्मिन्प्रयोजयेत् । अजरोऽरुक्समाभ्यासाज्जीवेचापि समाः शतम् ६॥
त्रिफलांके कल्कका लेप नवीन लोहेके पात्रमें करना चाहिये । फिर रातदिन रहा हुआ वह लेप शहद और जल मिलाकर पीना चाहिये । इसके हजम हो जानेपर अधिक स्नेह मिला भोजन करना चाहिये । इस प्रकार एक वर्षके प्रयोग कर लेनेसे मनुष्य जवान तथा नीरोग रह कर १०० वर्षतक जीता है ॥ ५६ ॥
पिप्पलीरसायनम् ।
पश्चाष्टौ सप्त दश वा पिप्पलीः क्षौद्रसर्पिषा । रसायनगुणान्वेषी समामेकां प्रयोजयेत् ॥ ७ ॥ तिस्रस्तिस्रस्तु पूर्वाह्णे भुक्त्वा भोजनस्य च । पिप्पल्यः किंशुकक्षारभाविता घृतभर्जिताः ॥ ८॥ प्रयोज्या मधुसंमिश्रा रसायनगुणैषिणा । जेतुं कासं क्षयं श्वासं शोषं हिक्कां गलामयम् ॥९॥ अशसि ग्रहणदोषं पाण्डुतां विषमज्वरम् ।
[ रसायना -
प्रयोजयेत्समामेकां त्रिफलाया रसायनम् । जीवेद्वर्षशतं पूर्णमजरोऽव्याधिरेव च ।। १२ ।।
अन्न हजम हो जानेपर १ हर्र, भोजन के पहिले दो बहेड़े और भोजनके बाद ४ आँवलेका घी व शहदके साथ १ वर्षतक प्रयोग करनेसे मनुष्य युवा तथा नीरोग रहकर १०० वर्षतक जीता है ॥ ११ ॥ १२ ॥
विविधानि रसायनानि ।
मण्डूकपर्ण्याः स्वरसः प्रयोज्यः क्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम् ।
रसो गुडूच्यास्तु समूलपुष्प्याः
कल्कः प्रयोज्यः खलु शङ्खपुष्प्याः ॥ १३ ॥ आयुःप्रदान्यामयनाशनानि
वर्णस्वरवर्धनानि ।
मेध्यानि चैतानि रसायनानि
मेध्या विशेषेण तु शङ्खपुष्पी ॥ १४ ॥ मण्डूकपर्णीका स्वरस अथवा दूधके साथ मौरेठीका चूर्ण अथवा गुर्चका रस, अथवा मूल व पुष्पसहित शंखपुष्पीका रस इनमें से किसी एकका प्रयोग करना चाहिये । यह आयु बढानेवाले, रोग नष्ट करनेवाले, बल, अभि तथा वर्ण और स्वरको बढानेवाले तथा मेधा के लिये हितकर रसायन हैं । इनमें भी शंखपुष्पी विशेष कर मेधा के लिये हितकर है ॥ १३ ॥ १४ ॥
अश्वगन्धारसायनम् ।
पीताश्वगन्धा पयसार्धमा सं घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । कृशस्य पुष्टिं वपुषो विधत्ते
वैस्वर्य पीनसं शोषं गुल्मं वातबलासकम् ॥ १० ॥
बालस्य शस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः ॥ १५ ॥ असगन्धके चूर्णका दूधके साथ अथवा घृत, तैल या
रसायनके गुणोंकी इच्छा रखनेवालेको पीपल ५, ७, ८, १०, ( अपनी प्रकृतिके अनुसार ) प्रतिदिन शहद व घीके गुनगुने जलमेंसे किसी एकके साथ सेवन करनेसे दुर्बल शरीरको इस प्रकार पुष्ट करता है, जैसे जलवृष्टि छोटे साथ सेवन करना चाहिये । यह प्रयोग एक वर्षका है । अथवा ढाकके क्षार जलसे भावित तथा घीमें भूनी गयी धानोंको ॥ १५ ॥ छोटी पीपल तीन तीनकी मात्रासे शहद में मिलाकर प्रात:काल, भोजनसे पहिले व भोजनके अनन्तर खानेसे कास, क्षय, श्वास, शोष, हिक्का, गलरोग, अर्श, ग्रहणीदोष, पाण्डुरोग, विषमज्वर, स्वरभेद, पीनस, गुल्म व वातबलासक, नष्ट होते हैं ॥ ७-१० ॥
धात्रीतिलरसायनम् । धात्रीतिलान्भृङ्गरजोविमिश्रान् ये भक्षयेयुर्मनुजाः क्रमेण । ते कृष्णकेशा विमलेन्द्रियाश्च निर्व्याधयो वर्षशतं भवेयुः ॥ १६ ॥
जो मनुष्य आंवला, तिल व भांगरा के चूर्णका सेवन करते हैं, वे कालेकेशयुक्त इन्द्रियशक्तिसम्पन्न १०० वर्ष तक
त्रिफलारसायनम् ।
जरणान्तेऽभयामेकां प्राग्भक्तं द्वे विभीतके । भुक्त्वा तु मधुसर्पि चत्वार्यामलकानि च ॥ ११ जीते हैं ॥ १६ ॥