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धिकारः ]
भाषाटीकोपेतः ।
वृद्धदार करसायनम् ।
वृद्धदारकमूलानि लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । शतावर्या रसेनैव सप्तरात्राणि भावयेत् ॥ १७ ॥ अक्षमात्रं तु तच्चूर्ण सर्पिषा सह भोजयेत् । मासमात्रोपयोगेन मतिमाञ्जायते नरः ॥ १९ ॥ मेधावी स्मृतिमांश्चैव वलीपलितवर्जितः ।
विधाराकी जड़का महीन चूर्ण कर शतावरीके रसकी ७ भावना देनी चाहिये । यह चूर्ण १ तोलाकी मात्रासे प्रतिदिन धी के साथ खाना चाहिये । इसके सेवनसे मनुष्य बुद्धिमान, मेधावी, स्मृतिमान् तथा वलीपलितरहित होता है ॥ १७ ॥ १८ ॥
हस्तिकर्णचूर्णरसायनम् ।
हस्तिकर्णरजः खादेत्प्रातरुत्थाय सर्पिषा ॥ १९॥ यथेष्टाहारचारोऽपि सहस्रायुर्भवेन्नरः । मेधावी बलवान्कामी स्त्रीशतानि व्रजत्यसी ॥२०॥ धुना त्वश्ववेगः स्याद्बलिष्ठः स्त्रीसहस्रगः । मन्त्रश्चायं प्रयोक्तव्यो भिषजा चाभिमन्त्रणे ॥ २१ ॥ "ओं नमो महाविनायकाय अमृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धिं देहि रुद्रवचनेन स्वाहा " ।। २२ ।।
जो मनुष्य प्रातःकाल भूपलाशके चूर्णको घी के साथ चाटता है, तथा यथेष्ट आहार विहार करता है, वह १००० वर्षतक जीता है । तथा मेधावी, बलवान् व कामी होकर १०० स्त्रियां के साथ मैथुन करता है । तथा इसीको शहदके साथ
से हजारों स्त्रियोंको गमन करनेकी शक्ति हो जाती है । तथा इस मन्त्रसे अभिमन्त्रण करना चाहिये । " ओं नमो महाविनायकाय अमृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धिं देहि रुद्रवचनेन स्वाहा " ।। १९-२२॥
( ३०३ )
गुडूच्यादिलेहः । गुडूच्यपामार्गविडङ्गशङ्खिनी वचाभयाकुष्ठशतावरी समा । घृतेन लीढा प्रकरोति मानवं त्रिभिर्दिनैः श्लोकसहस्रधारिणम् ॥ २४ ॥
गुर्च, अपामार्ग, वायविडङ्ग, शंखपुष्पी, वच, हर्र, कूठ और शतावरी समान भाग ले चूर्ण कर घीके साथ चाटने से ३ दिनके ही प्रयोगसे मनुष्य हजारों श्लोक कण्ठ करनेकी शक्तिसे सम्पन्न होता है ॥ २४ ॥
सारस्वतघृतम् ।
समूल पत्रामादाय ब्राह्मीं प्रक्षाल्य वारिणा । उलूखले क्षोदयित्वा रसं वस्त्रेण गालयेत् ॥ २५ ॥ रसे चतुर्गुणे तस्मिन्घृतप्रस्थं विपाचयेत् । औषधानि तु पेष्याणि तानीमानि प्रदापयेत् ॥ २६ ॥ हरिद्रा मालती कुष्ठं त्रिवृता सहरीतकी । एतेषां पलिकान्भागाशेषाणि कार्षिकाणि तु || २७॥ पिप्पल्योऽथ विडङ्गानि सेन्धवं शर्करा वचा । सर्वमेतत्समालोडय शनैर्मृद्वग्भिना पचेत् ॥ २८ ॥ एतत्प्राशितमात्रेण वाग्विशुद्धिश्च जायते । सप्तरात्रप्रयोगेण किन्नरैः सह गीयते ॥ २९ ॥ अर्धमासप्रयोगेण सोमराजीवपुर्भवेत् । मासमात्रप्रयोगेण श्रुतमात्रं तु धारयेत् ॥ ३० ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि अर्शासि विविधानि च । पञ्च गुल्मान् प्रमेहांश्च कासं पञ्चविधं जयेत् ॥३१॥ वन्ध्यानां चैव नारीणां नराणां चाल्परेतसाम् । घृतं सारस्वतं नाम बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ ३२ ॥
धात्री चूर्णरसायनम् ।
धात्रीचूर्णाढकं स्वस्वरसपरिगतं क्षौद्रसर्पिः समांशं कृष्णामानी सिताष्टप्रसृतयुतमिदं स्थापितं भस्मराशी । वर्षान्ते तत्समनन्भवति विपलितो रूपवर्णप्रभावे र्निर्व्याधिर्बुद्धिमेधास्मृतिबलवचनस्थैर्यसत्त्वैरुपेतः २३ ॥
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आंवले का चूर्ण ३ सेर १६ तोला, आंवले के स्वरससे ही ७ बा भावित कर शहद व घी समान भाग मिला तथा छोटी पीपल ३२ तोला, मिश्री ६४ तोला मिलाकर भस्मराशिमें गाड़ देना चाहिये । वर्षाकालके अनन्तर निकाल कर इसका सेवन करने से मनुष्य पलितराहत रूप, वर्ण और प्रभावयुक्त, मीरोग तथा बुद्धि, धारण शक्ति, स्मरणशक्ति, बल ब बचनकी स्थिरता तथा सत्वगुणसे युक्त होता है ॥ २३ ॥
मूलपत्रसहित ब्राह्मी खोद जलसे धो ओखलमेिं कूटकर कपड़ेसे रस छानना चाहिये । इस प्रकार छने ६ सेर ३२ तो ० रसमें १ सेर ९ छ. ३ तो० घी मिलाकर पकाना चाहिये । तथा हल्दी, मालती, कूठ, निसोथ व हर्र, प्रत्येक ४ तोले तथा छोटी पीपल, वायविडंग, सेंधानमक, शक्कर व बच प्रत्येक १ तोलाका कल्क मिलाकर मन्द आँचसे पकाना चाहिये । सम्यक् पाकार्थ घीसे चौगुना जल भी छोड़ना चाहिये । यह घृत चाटने से ही वाणी शुद्ध करता है, इसका प्रयोग करनेवाला ७ दिनमें ही किन्नरोंके समान गानेवाला, १५ दिनमें चन्द्रमाकी किरणों के समान शरीवाला होता है। एक मास प्रयोग कर लेनेसे जो कुछ सुनता है, उसे ही कण्ठ कर लेता है । यह अठारह प्रकार के कुष्ठ, अर्श, पांचों गुल्म प्रमेह तथा पांचों प्रकारके कास नष्ट करता है । वन्ध्याः स्त्रियों तथा अल्पवीर्यान्वित पुरुषोंके लिये हितकर है। तथा यह " सारस्वत घृत" बल वर्ण व अभिको बढाता है॥२५-३२॥
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