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(३०४)
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जलरसायनम् ।
तत्राष्टमो विभागः शेषः काथस्य यत्नतः स्थाप्यः । कासश्वासांतिसारज्वरपिडककटीकुष्ठकोठप्रकारान् । तेन हि मारणपुटनस्थालीपाका भविष्यन्ति ॥४१॥ मूत्राघातोदरार्शःश्वयथुगलशिरःकर्णशूलाक्षिरोगान् । पाकार्थे तु त्रिफला भागद्वितये शरावसंख्यातम् । ये चान्ये वातपित्तक्षतजकफकृता व्याधयः सन्ति जन्तो- प्रतिपलमम्बु समं स्यादधिकं द्वाभ्यां शरावाभ्याम्॥ स्तांस्तानभ्यासयोगादपनयति पयः पीतमन्ते निशायाः।। तत्र चतुर्थो भागः शेषो निपुणेन यत्नतो ग्राह्यः। व्यङ्गवलीपलितघ्नं पीनसवैस्वर्यकासशोथनम् । । अयसः पाकार्थत्वात्स च सर्वस्मात्प्रधानतमः॥४३॥ रजनीक्षयेऽम्बुनस्य रसायनं दृष्टिजननं च ॥ ३४ ॥
समस्त लौहकर्ममें क्वाथ बनानेके लिये प्रतिपल ३ शराव रात्रिके अन्त में जल पीनेके अभ्याससे कास, श्वास, अतीसार, कडव ) जल छोड़ना चाहिये, तथा सात पल (पांच पल ज्वर, कमरकी पीड़ा, कुष्ठ, ददरे, मूत्राघात, उदर, अशे, शथ, लाहके लिय गृहीत त्रिफलाके तृतीयांशभाग) से १५ पलतक गले, शिर, कान व नेत्रके रोग तथा अन्य वात, पित, कफ त्रिफलामें जल पूर्वोक्त मानसे क्रमशः ३ से ११ शराव तक तथा रक्तसे उत्पन्न होनेवाले रोग नष्ट होते हैं । इसी प्रकार अधिक छोडना । जैसे ७ पलके लिये ७४३२१ और ३ शराव प्रातःकाल जलका नस्य लेनेसे झांई, झुर्रियां, बालोंकी सफेदी, अधिक अर्थात् २४ शराव जल लेना चाहिये । ऐसे ही (६ पल पीनस, स्वरभेद, कास, सृजन नष्ट होती है । तथा यह रसायन लौहके लिये गृहीत त्रिफलाके तृतीयांश भाग) ८ पल त्रिफलाके नत्रोंकी शक्तिको बढाता है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
लिये २४ शराव और ४ शराव अधिक अर्थात् २८ शराव जल
लेना चाहिये। ऐसे ही क्रमशः जितने पल क्वाथ्य त्रिफला हो, अमृतसारलोहरसायनम् ।
| उससे त्रिगुण शराव जल तथा ९ पलमें ५, दश पलमें ६, नागार्जुनो मुनीन्द्रः शशास यल्लोहशास्त्रमतिगहनम् । ग्यारहमें ७, इसी प्रकार बढाते हुए १५ पलमें ११ शराव तस्यार्थस्य स्मृतये वयमेतद्विशदा ५॥ अधिक अर्थात् १५ के त्रिगुण ४५ और ११ और ५६ शराव मेने मुनिः स्वतन्त्रे भूयः पाकं न पलपञ्चकादक । जल छोड़ना चाहिये । तथा अष्टमांश काथ शेष रखना चाहिये। सुबहुप्रयोगदोषादूर्ध्व न पलत्रयोदशकात् ॥ ३६॥ | इसी
|इसीसे मारण, पुटन व स्थालीपाक करना चाहिये तथा प्रधान
पाकके लिये बचे त्रिफलामें प्रतिपल १. शराव (अर्थात् त्रिफलासे तत्रायसि पचनीये पञ्चपलादी त्रयोदशपलान्ते च ।।
अष्टगुण ) जल और २ शराव अधिक छोड़ना चाहिये और लोहात्रिगुणा त्रिफला ग्राह्या षडभिः पलेरधिका ।।
चतुर्थीश शेष रखना चाहिये । प्रधानपाकमें सहायक होनेसे यह मारणपुटनस्थालीपाकास्त्रिफलैकभागसम्पाद्याः।।
काथ भी प्रधान है ॥ ३९-४३ ॥ त्रिफलाभागद्वितयं ग्रहणीयं लौहपाकार्थम् ॥ ३८ ॥ नागार्जुन मुनिने जो लोहशास्त्र अति कठिन तथा गम्भीर
दुग्धनिश्चयः। कहा है, उसके स्मरणार्थ हम उसका विशद व्याख्यान करते हैं। पाकार्थमश्मसारे पञ्चपलादी त्रयोदशपलान्ते । मानिने अपने शास्त्रमें पांच पलसे कम तथा तेरह पलसे अधिक दुग्धशरावद्वितयं पादरेकादिकैरधिकम् ॥ ४४॥ लोहका एक बारमें प्रयोग नहीं कहा । उस लोहकी भस्म करनेके लिये जितना लोह हो, उससे तिगुना छः पल अधिक मिलाकर
| लौहपाकके लिये ५ पलसे १३ पलतक लौहमें २ शराव (जैसे ५ पल लोहके लिये ५ के तिगुने १५ और ६ अर्थात और १ शराव दूध अधिक प्रतिपलमें लेना चाहिये । अर्थात् २१ पल इसी प्रकार १० पल लोहके लिये १० के तिगुने ३०५ पलमें २५ शराव, ६ पलमें २॥ शराव, ७ पलमें २।। शराव, और ६ अर्थात् ३६ पल) त्रिफला लेनी चाहिये। उसके तीन | ८ पलमें ३ शराव इसी प्रकार प्रतिपल लौहमें चौथाई शराव भाग करने चाहिये एक भागसे मारण, पुटन और स्थालीपाक | दूध बढा देना चाहिये ॥ ४४ ॥ करना चाहिये । शेष २ भाग त्रिफला प्रधानपाकके लिये रखनी चाहिये ॥३५-३८॥
लौहमात्रानिश्चयः। जलनिश्चयः।
पञ्चपलादिकमात्रा तदभावे तदनुसारतो ग्राह्यम् । सर्वत्रायःपुटनाद्यर्थैकांशे शरावसंख्यातम् । । चतुरादिकमेकान्तं शक्तावधिकं त्रयोदशकात्॥४५॥ प्रतिपलमेव त्रिगुणं पाथः काथार्थमादेयम् ॥३९॥ सामान्यनियम पञ्चपलादिका है, पर इसके अभावमें ४ पलसे सप्तपलादी भागे पञ्चदशान्तेऽम्भसां शरावेश्व। १ पलतकका तथा शक्ति होनेपर १३ पलसे अधिक लौहका भी त्र्याधैकादशकान्वैरधिकं तद्वारि कर्तव्यम् ॥ ४० ॥] पाक कर सकते हैं ॥ ४५ ॥