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चक्रदत्तः ।
जलाना चाहिये । इससे जो तैल चुवे, वह गुनगुना गुनगुना कामें डालने से तत्काल पीड़ा शान्त होती है । इसी प्रकार देवदारु, कूठ और सरलकी लकड़ियोंसे तेल निकाल कानमें छोड़नेसे शूल मिटता है ॥ १०-१२ ॥
• अर्कपत्रयोगः । अर्कस्य पत्र परिणामपीत
माज्येन लिप्तं शिखिनावतप्तम् । आपीडय तोयं श्रवणे निषिक्त निहन्ति शूलं बहुवेदनं च ॥ १३ ॥ जो आकका पत्ता अपने आप पककर पीला हो गया हो, उसमें घी लगा अग्निमें गरमकर रस निचोड़ कानमें छोड़नेसे पीड़ा नष्ट होती है ॥ १३ ॥
अन्ये योगाः ।
तत्रशुलातु कर्णे सशब्दे वेदवाहिनि । बस्तमूत्रं क्षिपेत्कोष्णं सैन्धवेनावचूर्णितम् ॥ १४ ॥ वंशावलेखसंयुक्ते मूत्रे वाजविके भिषक् । तैलं पचेत्तेन कर्णं पूरयेत्कर्णशूलिनः ॥ १५ ॥ हिंगुतुम्बुरुशुण्ठीभिः साध्यं तैलं तु सार्षपम् कर्णशूले प्रधानं तु पूरणं हितमुच्यते ॥ १६ ॥
[ कर्णरोगा
मधुभाण्डे विनिक्षिप्य धान्यराशी निधापयेत् । मासेन तज्जातरसं मधुशुक्तमुदाहृतम् ॥ २३ ॥
मूली के टुकडों को सुखाकर बनाया गया क्षार, हींग, सोंठ, सौंफ, बच, कूठ, देवदारु, सहिजन, रसौत, कालानमक, जवाखार, सज्जीखार, खारीनमक, संधानमक, भोजपत्रकी गांठ, विड़नमक, नागरमोथाका कल्क, तथा तैलसे चतुर्गुण मधुशुक्त | तथा बिजौरेनिम्बू का रस व केलेका रस प्रत्येक तैलसे चतुर्गुण | मिलाकर सिद्ध तेलको कानमें छोड़नेसे कानकें कीड़े नष्ट होते हैं। यह भगवान् पुनर्वसुकी आज्ञा है । यह " क्षारतेल" मुख और दांतके रोगों को नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है । मधु प्रधान शुक्त " मधुशुक्त" कहा . है । अथवा जम्बीरी निम्बूके फलके रसको पिपरामूलके साथ मिलाकर शहद के बर्तन में रखकर धान्यराशिमें रखना चाहिये। यह महीने भर में खटमिट्ठा हो जानेपर " मधुशुक्त कहा जाता है ॥१७- २३ ॥
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तीव्रशूल युक्त बहते और शब्द करते हुए कानमें कुछ कुछ गरम गरम बकरेके मूत्र में संधानमक मिलाकर छोड़ना चाहिये । अथवा वंशलोचनसे युक्त बकरी और भेड़ के मूत्रमें तैल पकाकर कानमें छोड़नेसे कर्णशूल नष्ट होता है । अथवा हींग, तुम्बरु, सोंठ के कल्कसे सरसों के तैलको सिद्ध कर कान में छोड़नेसे लाभ होता है ॥ १४-१६ ॥
क्षारतैलम् ।
बालमूलकशुण्ठीनां क्षारो हिंगु सनागरम् । शतपुष्पवचाकुष्ठं दारुशिमुरसाञ्जनम् ॥ १७ ॥ सौवर्चलं यवक्षारः सर्जिकोद्भिदसैन्धवम् । भूर्जग्रन्थिविडं मुस्तं मधुशुक्तं चतुर्गुणम् ॥ १८ ॥ मातुलुंगरसश्चैकदल्या रस एव च । तैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलहरं परम् ॥ १९ ॥ बाधियै कर्णनादश्च पूयास्रावश्च दारुणः । पूरणादस्य तैलस्य क्रिमयः कर्णसंश्रिताः ॥ २० ॥ क्षिप्रं विनाशं गच्छन्ति कृष्णात्रेयस्य शासनात् । क्षारतैलमिदं श्रेष्ठं मुखदन्तामयापहम् ॥ २१ ॥ मधुप्रधानं शुक्तं तु मधुशुक्तं तथापरम् । जम्बीरस्य फलरसं पिप्पलीमूलसंयुतम् ॥ २२ ॥
कर्णनादचिकित्सा | कर्णनादे कर्णवेडे कटुतैलेन पूरणम् । नादबाधिर्ययोः कुर्यात्कर्णशूलोक्तमौषधम् ॥ २४ ॥ कर्णनाद और कानोंकी सनसनाहट में कडुए तैलको कान में छोड़ना चाहिये । तथा बहरेपन में कर्णशूलोत औषध | छोड़ना चाहिये ॥ २४ ॥
अपामार्गक्षारतैलम् ।
अपामार्गक्षारजले तत्कृतकल्केन साधितं तिलजम् । अपहरति कर्णनादं बाधिर्यं चापि पूरणतः ॥ २५ ॥ अपामार्गक्षारके जलमें अपामार्गके ही कल्कसे सिद्ध तिलतैलको कानमें ड़ालनेसे कर्णनाद व बहिरापन नष्ट होता है ॥ २५ ॥
सर्जिकादितैलम् ।
सर्जिका मूलकं शुष्कं हिंगु कृष्णा महौषधम् । शतपुष्पा च तैस्तैलं पक्वं शुक्तचतुर्गुणम् । . प्रणादशू बाधियै स्रावं चाशु व्यपोहति ॥ २६ ॥ सज्जीखार, सूखी मूली, हींग, छोटी पीपल, सोंठ व सौंफके कल्क तथा चतुर्गुण सिरका मिलाकर सिद्ध तैल शीघ्र ही कर्णनाद, बाधिर्य और स्रावको नष्ट करता है ॥ २६ ॥
दशमूलीतैलम् । दशमूलीकषायेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् ।
एतत् कल्कं प्रदायैव बाधिर्ये परमौषधम् ॥ २७ ॥ दशमूलके काढ़े व कल्कसे सिद्ध तैल बाधिर्यकी परमौषध है ॥ २७ ॥
बिल्वतैलम् |
फलं बिल्वस्य मूत्रेण पिष्ट्वा तैलं विपाचयेत् । साजक्षीरं हरेत्तद्धि बाधिर्य कर्णपूरणे ॥ २८ ॥