________________
धिकारः]
भाषाटीकीपेतः।
न्न्न्न्न्न्न्नन्न्न्न्च लज्जाफलत्रयरसाजनधातकीभ.
आर्द्रकसूर्यावर्तकश्रीपुष्पगैरिककटङ्कटकट्फलानाम् ।
शोभाजनमूलमूलकस्वरसाः। पद्मावलोध्रवटराहयवासकानां
मधुतैलसैन्धवयुताः मांसीनिशासुरभिवल्कलसंयुतानाम्॥११६॥
पृथगुष्णाः कर्णशूलहराः॥४॥ कक्कोलजातिफलकोषलवङ्गकानि
शोभाजनकनिर्यासस्तिलतैलेन संयुतः। चूर्णीकृतानि विदधीत पलांशकानि ।।
कदुष्णः पूरणः कण कर्णशुलोपशान्तये ॥५॥ शीतेऽवतार्य घनसारचतुःपलं च
अष्टानामपि मूत्राणां मूत्रेणान्यतमेन च। क्षिप्त्वा कलायसदृशीर्वटिकाःप्रकुर्यात् ११७|
कोष्णेन पूरयेत्कौँ कर्णशूलोपशान्तये ॥६॥ शुष्का मुखे विनिहिता विनिवारयन्ति अश्वत्थपत्रखल्वं वा विधाय बहुपत्रकम् । रोगान्गलीष्ठरसनाद्विजतालुजातान् ।
तैलाक्तमङ्गारपूर्ण निध्याच्छ्रवणोपरि ॥७॥ . कुर्युर्मुखे सुरभितां पटुतां रुचिं च
यतैलं च्यवते तस्मात्खल्वादङ्गारतापितात् । स्थैर्य परं दशनगं रसनालघुत्वम् ॥ ११८॥
तत्प्राप्तं श्रवणस्रोतः सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ ८॥
अर्कपत्रपुटे दग्धस्नुहीपत्रभवो रसः । कत्था ५ सेर, दुर्गन्धित खैर १२॥ सेर दोनोंको २ मन २२ |
कदुष्णं पूरणादेव कर्णशूलनिवारणः ॥९॥ सेर ३२ तो० जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर कपड़ेसे छानकर फिर मन्द आंचसे पकाना चाहिये । जब गाढा| फैथा, बिजौरा निम्बू तथा अदरखके रसको गरम कर गुनहो जाय, तो इलायची, सफेद चन्दन, कमलकी डण्डी, लाल-गुना गुनगुना कानमें डालनेसे कर्णशूल शान्त होता है। अथवा चन्दन, सुगन्धवाला, प्रियंगु, तेजपात, मजीठ, नागरमोथा, अदरखका रस, शहद, सेंधानमक व तैल कुछ गरमकर कानमें अगर, मोरेठी लज्जावंती, त्रिफला, रसौत, धायके फूल नाग
| छोड़नेसे पीड़ा नष्ट होती है। अथवा लहसुन, अदरख, सहिंकेशर, लौंग, गेरू, दारुहल्दी, कैफरा, पद्माख, लोध, बर-जन, लाल सहिजन, मूली और केलाके स्वरसको कुछ गरम गदकी वौं, यवासा, जटामांसी, हल्दी, दालचीनी प्रत्येक | गरम कानमें छोड़नसे अथवा समुद्रफेनके चूर्णको छोड़नेसे कानकी एक तोला, कंकोल, जायफल, जावित्री, लवङ्ग प्रत्येक ४/पीड़ा शान्त होती है । अदरख, सूर्यावर्तक, सहिजनकी . जड तोला ले चूर्णकर छोड़ना चाहिये । टण्ढा होनेपर कपूर
और मूली इनमेंसे किसी एकके स्वरसको गरम कर शहद, १६ तोला मिला मटरकी वराबर गोली बनाकर सुखा |तल व सेंधानमक मिला छोड़नेसे कानके शुल नष्ट होते हैं। लेना चाहिये । यह गोली मुखमें रखनेसे गले, ओष्ट, तथा सहिजनके स्वरसको तिल तैलके साथ मिला गरम जिह्वा व तालुके रोग नष्ट होते हैं । मुख सुगन्धित स्वच्छ
|कर कानमें छोड़नेसे अथवा आठ मूत्रोमेंसे किसी एकको गरमहोता, रुचि उत्पन्न होती, दन्त दृढ तथा जिह्वा हल्की होती कर कानमें छोड़नेसे कर्णशूल शान्त होता है । अथवा पीपलके है ॥ ११४-११८॥
पत्तोंका दोना बनाकर तैल चुपर अंगार रख कर कानके
ऊपर (कुछ दूर ) रखना चाहिये । इससे जो तैल कानमें . इति मुखरोगाधिकारः समाप्तः ।
| टपकेगा, उससे कर्णशूल तत्काल शान्त होगा । अथवा
आकके पत्तोंके अन्दर थोहरके पत्तोंको रख पुटपाकसे निचोड़कर निकाला रस कानमें छोड़नसे तत्काल कर्णशूल नष्ट
होता है ॥१-९॥ कर्णशूलचिकित्सा।
दीपिकातैलम् ।
महतः पञ्चमूलस्य काण्डान्यष्टाङ्गुलानि च । कपित्थमातुलुङ्गाम्लशृङ्गवररसैः शुभैः।
क्षीमेणावेष्टय संसिच्य तैलेनादीपयेत्ततः ॥ १० ॥ सुखोष्णैः पूरयेत्कर्ण कर्णशूलोपशान्तये ॥ १॥ यत्तैलं च्यवते तेभ्यः सुखोष्णं तत्प्रयोजयेत् । शृंगबेरं च मधु च सैन्धवं तैलमेव च ।। ज्ञेयं तद्दीपिकातैलं सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ ११ ॥ कदुष्णं कर्णयोर्देयमेतद्वा वेदनापहम् ॥२॥ एवं कुर्याद्भद्रकाष्ठे कुष्ठे काष्ठे च सारले । लशुनाकशियूगां सुरंग्या मूलकस्य च । मतिमान्दीपिकातलं कर्णशूलनिवारणम् ॥ १२ ॥ कदल्याः स्वरसः श्रेष्ठः कदुष्णः कर्णपूरणे।। बेल, सोनापाठा, खम्भार, पाढल व अरणीकी लकड़ी समुद्रफेनचूर्णेन युक्त्या वाप्यवचूर्णयेत् ॥ ३॥ आठ २ अंगुलकी ले अलसीके वस्त्रसे लपेट तैलसे तर कर
अथ कर्णरोगाधिकारः।
Prart: पूरयेत्
सन्धर्व तैलमेव
॥२॥