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[ज्वरा
दादिक्वाथः।
सन्निपातज्वरमें पाहले लंघन, वालुकास्वेद, नस्य, निष्ठीवन दारुपर्पटभार्यब्दवचाधान्यककट्फलैः। - अवलेह तथा अञ्जनका प्रयोग करना चाहिये । तथा पहिले साभयाविश्वभूतीकैः ('पूतीकैःभूतिक्तः') आम और कफ को शान्त करनेका उपाय करना चाहिये । क्वाथो हिंगुमधूत्कटः ॥ १४१ ॥
| तदनन्तर पित्त और वायुको शान्त करना चाहिये ॥१४५-१४६ कफवातज्वरे पीतो हिक्कावासगलग्रहान् ।
लंघनम् । कासशोषप्रसेकांश्च हम्यात्तरुमिवाशनिः॥ १४२॥ त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा दशरात्रमथापि वा।
देवदारु, पित्तपापडा, भारङ्गी, नागरमोथा, बच, धनियां, लंघनं सन्निपातेषु कुर्याद्वारोग्यदर्शनात् ।। १४७ ॥ कायफर, बड़ी हर्र, सोंठ, अजेवाइनका क्वाथ, हींग तथा शहद सन्निपात ज्वरमें तीन, पांच अथवा दश दिन अथवा जबतक मिलाकर देना चाहिये । यह क्वाथ कफवातज्वर, हिक्का, श्वास, आरोग्य न हो, तबतक लंघन कराना चाहिये ॥ १४७ ॥ गलेकी जकड़ाहट, कास, मुखका सूखना तथा मिचलाहटको इस प्रकार नष्ट करता है, जैसे वज्र वृक्षको नष्ट करदेता
लंघनसहिष्णुता। है ॥ १४१॥ १४२॥
दोषाणामेव सा शक्तिलेघने या सहिष्णुता । ___हिंग्यादिमानम्।
न हि दोषक्षये काश्चत्सहते लंघनादिकम् ।।१४८॥ मात्रा क्षौद्रघतादीनां स्नेहक्वाथेषु चूर्णवत् ।।
दोषोंकी ही शक्तिसे मनुष्य लंघन सहन कर सकता है ।
दोषोंके नष्ट हो जानेपर कोई लंघन नहीं सह सकता ॥ १४८ ॥ माषिकं हिगुसिन्धूत्थं जरणाद्यास्तु शाणिकाः१४३ / स्नेह तथा क्वाथमें घी तथा शहदकी मात्रा चूर्णके समान |
निष्ठीवनम् । अर्थात् स्नेह तथा क्वाथ्यद्रव्यसे चतुर्थांश छोड़ना चाहिये । हींग आर्द्रकस्वरसोपेतं सैन्धवं सकटुत्रिकम् । तथा सेंधानमक १ माशा और जीरा आदिक ३ माशे छोड़ना
आकण्ठं धारयेदास्ये निष्ठीवेच्च पुनः पुनः॥१४९॥ चाहिये ॥ १४३॥
अदरखका स्वरस, सेंधानमक, सोंठ, मिर्च व पीपल मिलाकर
गलेतक मुखमें बार बार रखना चाहिये और थूकना चाहिये १४९ मुखवैरस्यनाशनम्।
तेनास्य हृदयाच्छ्लेष्मा मन्यापाशिरोगलात् । मातुलुङ्गफलकेशरोधृतः
लीनोऽप्याकृष्यते शुष्को लाघवं चास्य जायते१५० सिन्धुजन्ममरिचान्वितो मुखे ।
पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्च मू कासगलामयाः । हन्ति वातकफरोगमास्यगं
मुखाक्षिगौरवं जाडयमुत्क्लेशश्चोपशाम्यति ॥१५१॥ शोषमाशु जडतामरोचकम् ॥ १४४॥
सकृद् द्वित्रिचतुः कुर्याद् दृष्ट्वा दोषबलाबलम् । बिजौरे निम्बूका गूदा, सेंधानमक तथा काली मिर्च के साथ।
एतद्धि परमं प्रादुर्भेषजं सन्निपातिनाम् ॥१५२॥ मुखमें रखनेसे वातकफजन्य मुखरोग, मुखका सुखना, जड़ता |
निष्ठीवनसे हृदय, मन्या ( गलेके बगलकी शिरायें ), तथा अरुचि तत्काल नष्ट हो जाती है ॥ १४४ ॥
पसुलियां, शिर तथा गलेमें सूखा तथा रुका हुआ कफ खिच सन्निपातज्वरचिकित्सा ।
भाता है । तथा यह अङ्ग हलके हो जाते हैं और सन्धियोंका लंघनं वालुकास्वेदो नस्यं निष्ठीवनं तथा । दर्द, शरीरका दर्द, मूर्छा, कास तथा गलेके रोग, मुख तथा अवलेहोऽञ्जनं चैव प्राक् प्रयोज्यं त्रिदोषजे ॥ १४५ नेत्रोंका भारीपन, जड़ता तथा मिचलाई शांत होती है । सन्निपातज्वरे पूर्व कुर्यादामकफापहम् ।
दोषोंका बलाबल देखकर एक, दो, तीन या चार बार तक पश्चाच्छलेष्मणि संक्षीणे शमयेत्पित्तमारुती॥१४६॥
निष्ठीवन कराना चाहिये । सन्निपातवालोंके लिये यह उत्तम
प्रयोग है ॥ १५०-१५२॥ १ किसी पुस्तकमें 'भूतीक' के स्थानमें · पूतीक' तथा
नस्यम् । किसीमें 'भूतिक्त ' पाठ है । पर यह पाचनक्काथ है, हिंगु भी | मातुलुङ्गाकरसं कोष्णं त्रिलवणान्वितम् । पड़ती है। अतः साहचर्यसे अजवाइन ही छोडना उचित प्रतीत अन्यद्वा सिद्धिविहितं तीक्ष्णं नस्यं प्रयोजयेत् १५३ होता है। पूतीक-पूतिकजा । भूतिक्त-चिरायता। २ यह मात्रा| बिजौरे निम्बूका रस, अदरखका रस कुछ गरम कर सैंधव, वर्तमानसमयमें अधिक होगी। अतः वैद्योंको इसका निर्णय स्वयं सामुद्र, सौवर्चल नमक मिलाकर नस्य देना चाहिये । अथवा करना चाहिये । मेरे विचारसे भुनी हींग २ रती और नमक | सिद्धिस्थानमें कहे गये अन्य तीक्ष्ण नस्योंका प्रयोग करना १ माशे डालना ठीक होगा।
. |चाहिये ॥ १५३॥