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विकारः]] भाषाटीकोपेतः।
(२०५७
- न्न्न्न् अमलतास, हल्दी तथा निसोथके चूर्णको घी और शहदमें| अर्बुदादिषु चोरिक्षप्य मूले सूत्रं निधापयेत् । मिला लपेटकर बनायी गई सूत्रवर्ती (व्रणके अन्दर भरनेसे ).. सूचीभिर्यववकाभिराचितं चासमन्ततः ॥ १३ ॥ व्रणको शुद्धकर नासूरको नष्ट करती है ॥ ४ ॥
मूले सूत्रेण बनीयाच्छिन्ने चोपचरेद् प्रणम् । वर्तयः।
पतले, कमजोर, डरपोक पुरुषोंकी नाड़ी तथा जो मर्मस्था. घोण्टाफलत्वङ् मदनात्फलानि
नमें हुई है, उसे शस्त्रसे कभी न काटना चाहिये । पता लगाने
वाली सलाईसे कहांतक नाड़ीकी गति अर्थात् 'पूयकी उत्पत्ति पूगस्य च त्वक् लवणं च मुख्यम् ।
हो गयी है, इसका पता लगाकर उतना ही लम्बा क्षारसूत्र लुह्यर्कदुग्धेन सहेष कल्को
सूचीके द्वारा अन्दर रखना चाहिये । और सुईको कुछ ऊपर - वर्तीकृतो हन्त्यचिरेण नाडीम् ।। ५॥
उठाकर निकाल लेना चाहिये । तथा सूत्र निकल न जाय, इस वर्तीकृतं माक्षिकसंप्रयुक्त
लिये ऊपरसे कसकर बांध देना चाहिये । तथा जन सूत्रमें नाडीनमुक्तं लवणोत्तमं वा।
क्षारकी शक्तिकी शिथिलता प्रतीत होने लगे, तब दूसरा क्षारसूत्र दुष्टवणे यद्विहितं च तैलं
प्रविष्ट करना चाहिये, जबतक गति कट न जावे । भगन्दरमें तत्सेव्यमानं गतिमाशु हन्ति ॥६॥ भी यही चिकित्सा वैद्यको करनी चाहिये । अर्बुद आदिके जात्यर्कसम्पाककर जदन्ती
ऊपर उठाकर चारों ओर यवके समान मुखवाली सुइयोंसे कससिन्धूत्थसौवर्चलयावशूकैः।
कर क्षारसूत्रसे बान्धना चाहिये । तथा कस जानेपर व्रणके समान वर्तिः कृता हन्त्यचिरेण नाडी
चिकित्सा करनी चाहिये।९-१३॥ स्नुकारापिष्टा सह माक्षिकेण ॥७॥
सप्ताङ्गगुग्गुलु बेरके फल और छाल, मैनफल, सुपारीकी छाल तथा गुग्गुलुखिफळाव्योषैः समशैिराज्ययोजितः। सेंधानमकके कल्कमें सेहुण्ड. और आकका दुग्ध मिला| नाडीदुष्टव्रणशूलभगन्दरविनाशनः ॥१४॥ कर बनायी गयी बत्ती शीघ्र ही नासूरको नष्ट करती है ।
गुग्गुलु, त्रिफला तथा त्रिकटुका समान भाग ले घी मिला तथा केवल सेंधानमककी बत्ती बना शहद मिलाकर रखनेस | सेवन करनेसे नाड़ी, दुष्टवण, शूल और भगन्दर नष्ट होत नासूर ठीक हाता है। इसी प्रकार दुष्ट व्रणके लिये जो है तैल कहे हैं, वे भी नासूरको शुद्ध करते हैं । तथा चमेली, आक, कजा, अमलतास, दन्ती, सेंधानमक, कालानमक
सर्जिकाचं तैलम् । और जवाखारको पीस सेहुण्डदुग्ध और शहद मिलाकर लगानसे | सर्जिकासिन्धुदन्त्यनिरूपिकानलनीलिका । नासूर नष्ट होता है ॥ ५-७॥
खरमचरिबीजेषु तैलं गोमूत्रपाचितम् ।। कंगुनिकामूलचूर्णम् ।
दुष्टत्रणप्रशमनं कफनाडीव्रणापहम् ॥ १५ ॥ माहिषदधिकोद्रवान्नमिश्रं हरति चिरविरूढां च। | सजीखार, सेंधानमक, दन्ती, चीतेकी जड़, सफेद आक, भुक्तं कंगुनिकामूलचूर्णमतिदारुणां नाडीम् ॥८॥ नल, नील और अपामार्ग बीजके कल्क तथा गोमूत्रमें भैंसाका दही और कोद्रवके भातके साथ कांकुनकी जड़के | सिद्ध तेल दुष्टत्रण तथा कफज नाडीत्रणको शान्त करता चूर्णको खानेसे नासूर शीघ्र ही शान्त होता है ॥ ८॥ क्षारप्रयोगः।
कुम्भीकाचं तैलम्। कृशदुर्बलभीरूणां गतिमर्माश्रिता च या।
कुम्भीकखर्जूरकापत्थाबल्वक्षारसूत्रेण तां छिन्द्यान्न शस्त्रेण कदाचन ॥९॥ __ वनस्पतीनां तु शलाटुवगें। एषण्या गतिमन्विष्य क्षारसूत्रानुसारिणीम् ।। कृत्वा कषायं विपचेत्तु तैलसूचीं निदध्यादभ्यन्तश्चोन्नाम्याशु घ निहरेत् १० मावाप्य मुस्तं सरलं प्रियंगुम् ॥१६॥ सूत्रस्यान्तं समानीय गाढं बन्धं समाचरेत् ।
सौगन्धिकामोचरसाहिपुष्पततः क्षीणबलं वीक्ष्य सूत्रमन्यत्प्रवेशयेत् ॥११॥ लोध्राणि दत्त्वा खलु धातकी च । क्षाराक्तंमतिमान्द्यो यावन्न छिद्यते गतिः । । । एतेन शल्यप्रभवा हि नाडी भगन्दरेऽप्येष विधिः कार्यों वैद्येन जानता ॥१२॥ रोहेद् व्रणो वै सुखमाशु चैव ॥ १७ ॥