________________
(२०६)
- [भगन्दरा
- सre
सुपारी, छुहारा, कैया, बेल और अन्य वनस्पतियोंके कच्चे
वटपत्रादिलेपः। फलोंके क्वाथमें तैल पकाना चाहिये । तथा नागरमाथा,धूपकाष्ठ ,
वटपत्रेष्टकाशुण्ठीगुडूच्य प्रिंयगु, दालचीनी, तेजपात, इलायची, मोचरस, नागकेशर,
सुपिष्टाः पिडकारम्भे लेपः शस्तो भगन्दरे ॥२॥ लोध और धायके फूलका कल्क छोड़ना चाहिये । इससे शल्यज-|
वरपदके कोमल पत्ते, इंटका चूरा, सोंठ, गुर्च, तथा पुनर्ननाड़ी तथा व्रण भर जाता है ॥ १६ ॥१७॥
वाको महीन पीसकर भगन्दरकी उठती हुई पिड़कामें लेप भल्लातकाचं तैलम्।
करना चाहिये ॥२॥ भल्लातकार्कमरिचर्लवणोत्तमेन
पक्कापक्कपिडकाविशेषः। सिद्धं विडङ्गरजनीद्वयचित्रकैश्च ।
पिडकानामपकानामपतर्पणपूर्वकम् । स्यान्मार्कवस्य च रसेन निहन्ति तैलं कर्म कुर्याद्विरेकान्तं भिन्नानां वक्ष्यते क्रिया ॥ ३॥
नाही कफानिलकृतामपची व्रणांश्च ॥१८॥ एषणीपाटनं क्षारवह्निदाहादिकं क्रमम् । मिलावां, अकौड़ा, काली मिर्च, सेंधानमक, वायविडङ्ग, विधाय व्रणवत्कार्य यथादोषं यथाक्रमम् ॥४॥ हल्दी, दारुहल्दी व चीतेकी जड़के कल्क तथा भांगरके अपक्क पिड़काओंमें अपतर्पणपूर्वक विरेचनान्त चिकित्सा रससे सिद्ध तैल कफवातज नाड़ी तथा अपची और व्रणोंको करनी चाहिये । तथा फूट जानेपर नाड़ीका पता लगाकर चीरना नष्ट करता है ॥१८॥
तथा क्षार व आग्निसे दाह कर व्रणके समान यथादोष यथाक्रम निर्गुण्डीतैलम् ।
चिकित्सा करनी चाहिये ॥३॥४॥ समूलपत्रां निर्गुण्डी पीडयित्वा रसेन तु ।।
त्रिवृदाद्युत्सादनम् । तेन सिद्धं समं तैलं नाडीदुष्टव्रणापहम् ॥ १०॥ त्रिवृत्तिला नागदन्ती मञ्जिष्ठा सह सर्पिषा । हितं पामापचीनां तु पानाभ्यजननावनैः।
उत्सादनं भवेदेतत्सैन्धवक्षौद्रसंयुतम् ॥५॥ विविधेषु च स्फोटेषु तथा सर्वत्रणेषु च ॥ २०॥ निसोथ, तिल, नागदमन तथा मजीठको पीसकर, घी, - सम्भालूके पञ्चांगके स्वरसमें समान भाग तैल सिद्ध किया | शहद व संधानमक मिलाकर अपक्क पिडकाआम उबटन गया नाड़ीव्रण, दुष्टव्रण, पामा, अपची, फफोलों तथा समस्त | लगाना
| लगाना चाहिये ॥५॥ वोंको पान, मालिश तथा नस्यसे नष्ट करता है ॥ १९॥२०॥
रसाञ्जनादिकल्कः। हंसपादादितैलम् ।
रसाखन हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठा निम्बपल्लवाः । हंसपारिष्टपत्रं जातीपत्रं ततो रसैः ।
त्रिवृत्तेजोवतीदन्तीकल्को नाडीव्रणापहः ॥६॥ तत्कल्कैर्विपचेलं नाडीव्रणविरोहणम ॥२१॥ । रसोत, हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, नीमकी पत्ती, निसोथ, लाल लज्जावन्तीकी पत्ती, नीमकी पत्ती तथा चमेलीकी चब्य और दन्तीका कल्क नाडीव्रणको शांत करता है ॥६॥ पत्ती इनके कल्क तथा स्वरससे सिद्ध तैल नाड़ी व्रणको |
कुष्ठादिलेपः। भरता है ॥ २१॥
कुष्ठं त्रिवृत्तिलादन्तीमागध्यः सैन्धवं मधु । इति नाडीव्रणाधिकारः समाप्तः।
रजनी त्रिफला तुत्थं हितं व्रणविशोधनम् ॥७॥
ठ, निसोथ, तिल, दन्ती, छोटी पीपल, सेंधानमक, अथ भगन्दराधिकारः।
शहद, हल्दी, त्रिफला तथा तूतियाका लेप घावको शुद्ध | करता है ॥७॥
. स्नुहीदुग्धादिवतिः। रक्तमोक्षणम् ।
स्नुह्यर्कदुग्धदार्वीभिर्वति कृत्वा विचक्षणः । गुदस्य श्वयधुं ज्ञात्वा विशोषय शोधयेत्ततः। । भगन्दरगतिं ज्ञात्वा पूरयेत्तां प्रयत्नतः ॥८॥ रक्तावसेचनं कार्य यथा पाकं न गच्छति ॥१॥ एषा सर्वशरीरस्थां नाडी हन्यान्न संशयः ॥ ९॥
गुदामें सूजन जानकर लंघनादिकर्षण द्वारा सुखाकर वमन, सेहुण्डका दूध, आकका दूध और दारुहल्दीके चूर्णकी बत्ती विरेचनादिसे शोधन करना चाहिये। तथा फस्त खुलाना चाहिये। बनाकर भगन्दरके नासूरमें रखना चाहिये । यह समस्त शरीजिससे पके नहीं ॥१॥
रके नाडीव्रणको नष्ट करती है॥८॥९॥