________________
(२७२)
चक्रदत्तः।
[ नेत्ररोगा
-
-
wwwrarianwwwwner-wroor
जोंक लगाकर खून निकालना चाहिये । गोरोचन, क्षार, तूतिया | ताम्रपात्रेऽजनं घृष्टं पिल्ले प्राक्लिन्नवमनि । छोटी पीपल, शहद इनमेंसे कोई एक प्रतिसारणमें उत्तम ताम्रपात्रे गुहामूलं सिन्धूत्थं मरिचान्वितम्।।२२६।। है ॥ २१४-२१६॥
आरनालेन संघष्टमञ्जनं पिल्लनाशनम् । निमिषविसग्रन्थिचिकित्सा। रसात, राल, चमेलीके फूल, मैनशिल, समुद्रफेन, नमक, निमिषे नासया पेयं सर्पिस्तेन च पूरणम ॥२१७॥ गेरू, व काली मिर्च समान भाग ले शहदमें मिलाकर प्रक्लिन्न स्वेदयित्वा बिसग्रन्थि छिद्राण्यस्य निराश्रयम। वत्ममें अञ्जन लगानेसे गीलापन, खुजली नष्ट करता व विनि
योंको जमाता है। तथा चुलकी ( मछली ) की हड्डी, पकं भित्त्वा तु शस्त्रेण सैन्धवेनावचूर्णयेत्॥२१८॥
| काजी व नमकके साथ ताम्रके बर्तन में अञ्जन घिसकर पिल्ल निमिषमें नासिकासे घी पीना तथा घीसे ही नेत्र भरना तथा प्रक्लिनवममें लगाना चाहिये । इसी प्रकार पिठिवनकी चाहिये । बिसग्रन्थिका स्वेदन कर पकनेपर भेदनद्वारा साफ कर जड़, सेंधानमक व काली मिर्च काजीमें ताम्रपात्रमें ७ दिन घिससेंधानमक लगाना चाहिये ॥२१७ ॥ २१८ ॥
कर आँखमें लगाना पिल्लको नष्ट करता है ॥२२३-२२६ ॥पिल्लचिकित्सा ।
हरिद्रादिवर्तिः। वविलेखं बहुशस्तद्वच्छोणितमोक्षणम् ।। हरिद्रे त्रिफला लोधं मधुकं रक्तचन्दनम् ॥ २२७॥ पुनःपुनर्विरेकं च पिल्लरोगातुरो भजेत् ॥ २१९ ॥ भृङ्गराजरसे पिष्ट्वा घर्षयेल्लोहभाजने । पिल्ली स्निग्धो वमेत्पूर्व शिरां विद्धयेत् स्रुतेऽसृजि । तथा ताने च सप्ताहं कृत्वा वर्ति रजोऽथवा।।२२८।। शिलारसाजनव्योषगोपित्तश्चक्षुर जयेत् ॥ २२०॥ पिचिटी धूमदर्शी च तिमिरोपहतेक्षणः । हरितालवचादारुसुरसारसपेषितम् । । प्रातर्निश्यञ्जयेन्नित्यं सर्वनेत्रामयापहम् ।। २२९ ।। अभयारसपिष्टं वा तगरं पिल्लनाशनम् ॥ २२१ ।।। हल्दी, दारुहल्दी, त्रिफला, लोध, मौरेठी व लालचन्दनको पिल्लरोगमें बार बार विनियोंका खुरचना, फस्तका खोलना भांगरेके रसमें पीसकर लोहेके बर्तनसें घिसना चाहिये । फिर तथा बार वार विरेचन लेना चाहिये । तथा पहिले स्नेहन | सात दिन तांबेके बर्तन में रखकर बत्ती बना लेनी चाहिये। कर वमन करना चाहिये, फिर शिराव्यध कर रक्त निकल जाने-अथवा चूर्ण रखना चाहिये । इसका प्रातः और सायंकाल अञ्जन पर मनशिल, रसौंत, त्रिकटु व गोरोचनसे अजन लगाना चाहिये। लगानेसे पिचिट, धूमदर्शन, तिमिर आदि समस्त नेत्र राग शान्त इसी प्रकार तुलसीके रसमें पीसे हरिताल, बच, देवदारु | होते हैं ॥ २२७-२२९ ॥ अथवा हर्रके रसमें पीसा तगर, लगानेसे पिल्ल नष्ट होता|
मञ्जिष्ठाद्यञ्जनम्। है॥२१९-२२१॥
मञ्जिष्ठामधुकोत्पलोदधिकफत्वक्सेव्यगोरोचनाधूपः।
मांसीचन्दनशइखपत्रागिरिमृत्तालीसपुष्पाजनैः । भावितं बस्तमूत्रेण सस्नेहं देवदारु च । सँवरेव समांशमञ्जनभिदं शस्तं सदा चक्षुषोः काकमाचीफलेकेन घृतयक्तेन बद्धिमान् ॥ २२२॥ कण्डूक्लेदमलाश्रुशोणितरुजापिल्लामशुक्रापहम्२३०॥ धूपयेपिल्लरोगात पतन्ति क्रिमयोऽचिरात् । मजीठ, मौरेठी, नीलोफर, समुद्रफेन, दालचीनी, खश, गोरोबकरेके मूत्रसे भावित स्नेहके सहित देवदारु, अथवा घीके चन, जटामासी, चन्दन, शंख, तेजपात, गेरू, तालीशपत्र, सहित मकोयके फलकी धूप देनेसे पिल्ल रोगके कीड़े गिर काशीस तथा रसात सब समान ले अञ्जन लगाना आंखोंको जाते हैं ॥ २२२ ॥
हितकर तथा कण्डू, गीलापन, मल, आंसू तथा रक्तदोष, पिल्ल,
अर्म और शुक्रको नष्ट करता है ॥२३०॥ प्रक्लिन्नवर्त्मचिकित्सा। रसाञ्जनं सर्जरसो जातीपुष्पं मनःशिला ॥२२३॥
तुत्थकादिसेकः। समुद्रफेनो लवणं गैरिकं मारचानि च।
तुत्थकस्य पलं श्वेतमरिचानि च विंशतिः। एतत्समांशं मधुना पिष्टं प्रक्लिन्नवमनि ॥२२४ ।। त्रिंशता काजिकपलै: पिष्ट्वा ताने निधापयेत्॥२३१ अञ्जनं क्लेदकण्डूनं पक्ष्मणां च प्ररोहणम् । पिल्लानपिल्लान्कुरुते बहुवर्षोत्थितानपि । मस्तकास्थि चुलुक्यास्तु तुषोदलवणान्वितम् ॥२२५) तत्सेकेनोपदेहाश्रुकण्डूशोथांश्च नाशयेत् ।। २३२॥