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[शिराव्यथा
नेत्रे तर्पणवाज्याच्छतं द्वे त्रीणि धारयेत् । । ऊर्ध्व वेध्यप्रदेशाञ्च पट्टिकां चतुरङ्गुले । लेखनस्नेहनान्त्येषु कोष्णः पूर्वो हिमोऽपरः ॥३॥ पादे तु सुस्थितेऽधस्तान्जानुसन्धेनिपीडिते ॥ ६॥ धूमपोऽन्ते तयोरेव योगास्तत्र च तृप्तिवत् ।। ३३ ॥ गाढं कराभ्यामागुल्फ चरणे तस्य चोपरि । तर्पणं पुटपाकं च नस्यानहें न योजयेत् । द्वितीये कुञ्चिते किञ्चिदारूढे हस्तवत्ततः ॥७॥ यावन्त्यहानि युजीत द्विगुणो हितभाग्भवेत् ॥३४ |
बद्ध्वा विध्येच्छिरामित्थमनुक्तेष्वपि कल्पयेत् ।
तेषु तेषु प्रदेशेषु तत्तद्यन्त्रमुपायवित् ॥८॥ पुटपाकका प्रयोग भी पूर्वोक्त ( तर्पणोक्त ) रोगोंमें | हो करना चाहिये । तथा वातजरोगमें स्नेहन, काजमें |
ततो ब्रीहिमुखं व्यध्यप्रदेशे न्यस्य पीडयेत् । लेखन तथा दृष्टिकी दुर्बलता और वायु, पित्त तथा रक्तके
अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां तु तलप्रच्छादितं भिषक् ॥ ९ ॥ रोगमें व स्वस्थ पुरुषके लिये प्रसादन पुटपाक देना चाहिये। वामहस्तेन विन्यस्य कुठारीमितरेण तु । तथा पुटपाकके लिये मांस और औषधका कल्क ४ तोले ले| ताडयेन्मध्यमामुल्याङ्गुष्ठविष्टब्धमुक्तया ॥१०॥ पिण्ड बना लेहनके लिये एरण्ड, लेखनके लिये बरगद और जिसका शिराव्यध करना है, उसे स्नेहन तथा निग्ध मांसरस प्रसादनके लिये कमलके पत्तोंको पिंडके ऊपर लपेट ऊपरसे भोजन करा सूर्यकी ओर मुख कराकर घुटनेके बराबर ऊँचे मिट्टीका लेप कर सुखा धव, धामिन या कंडोंके अंगारोंमें|
आसनपर बैठाल कर पशीना आ जानेपर बालोंको मुलायम पकाना चाहिये । मिट्टी जब अग्निके अंगारेके समान लाल हो।
कपड़ेसे बाँधना चाहिये । फिर शिरोगत शिराओंके व्यध करनेके जाय, तब निकाल ठण्डा कर ओषधका रस निचोड़कर नेत्रमें लिये घुटनेपर दोनों कोहनियां रखकर अंगूठेके सहित बन्धी तर्पणके समान (मेंड आदि बना)छोड़ना चाहिये । तथा लेख-मठठियों से गलेके बगलकी शिराएँ जोरसे दबानी चाहिये । तथा नमें १०० मात्रा, स्नेहनमें २०० मात्रा और प्रसादनमें ३०० दाँतोंको कटकटाना, खासना और गालोको फुलाना चाहिये। मात्रा उच्चारणकालतक आंखों में धारण करना चाहिये । तथा फिर रोगीके पीछे खड़े हुए पुरुषको वस्त्र लपेटते हुए गरदन स्नेहन व लेखन पुटपाकका रस कुछ गरम तथा प्रसादन पुट- और दोनों हाथोंकी मुठठियोंको अपने हाथकी बाम तर्जनी अंगुपाकका रस ठण्डा छोड़ना चाहिये । तथा स्नेहन व लेखनके ही लीक बीचमें डाल कर बाँधना चाहिये । इस प्रकार शिरका अन्तमें धूमपान करना चाहिये । इसमें योगायोगादि तृप्तिके
उत्थापन कर शिरोगत शिराका व्यध करना चाहिये । इसी समान ही समझना चाहिये। तथा जिन्हें नस्यका निषेध है, उन्हें
प्रकारहाथकी शिराका व्यध हाथ फेलाकर करना चाहिये । तथा तर्पण व पुटपाक भी नहीं देना चाहिये। तथा जितने दिनतक
सुखपूर्वक बैठाल अंगुठेके सहित मुट्ठी बांध व्यध करनेके स्थानसे सर्पण या पुटपाकका प्रयोग करे , उससे दूने समयतक पथ्य
चार अङगुल ऊपर पट्टी बाँधकर शिराव्यध करना चाहिये । तथा सेवन करे ॥२८-३४॥
यदि पैरकी शिरा वेधनी हो, तो एक पैरको बराबर रखकर जिस इत्याश्च्योतनायधिकारः समाप्तः।
पैरमें व्यध करना है, उसे दोनों हाथोंसे जोरसे गुल्फतक दबाकर कुछ समेट भूमिपर सुस्थिर रखे हुए पैरपर रख बाँधकर शिरा
उत्थित हो जानेपर व्यध करना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्त अथ शिराव्यधाधिकारः। स्थानों में भी जिस प्रकार शिरा उठ सके, उसी प्रकार बाँधकर
शिराव्यध करना चाहिये । फिर व्यध करनेके स्थानमें व्रीहिमुख शन लगाकर अंगूठे व तर्जनी अंगुलीसे दबाना चाहिये । तथा
तलसे ढका रखना चाहिये । और यदि कुठारीसे शिराव्यध करना अथ स्निग्धतनुः स्निग्धरसान्नप्रतिभोजितः।।
हो, तो कुठारीको वामहस्तमें ले व्यध्य स्थानपर रखकर दहिने प्रत्यादित्यमुख स्विन्नो जानूञ्चासनसंस्थितः ॥१॥
हाथके अंगूठेके साथ मध्यमा अङ्गुली फंसाकर जोरसे छोड़ देना मृदुपट्टात्तकेशान्तो जानुस्थापितकूर्परः।
चाहिये ॥१-१०॥ अंगुष्ठगर्भमुष्टिभ्यां मन्ये गाढं निपीडयेत् ॥ २॥ दन्तसम्पीडनोत्कासगण्डाध्मानानि चाचरेत् ।
बीहिमुखकुठारिकयोः प्रयोगस्थानम् । पृष्ठतो यन्त्रयेक्षेनं वस्त्रमावष्टयन्नरः ॥३॥ मांसले निक्षिपेद्देशे ब्रीह्यास्यं ब्रीहिमात्रकम् । कन्धरायां परिक्षिप्य न्यस्यान्तर्वामतर्जनीम् । यवार्धमस्थ्नामुपरि शिरां विध्यन्कुठारिकाम् ॥११॥ एवमुत्थाप्य विधिना शिरां विध्येच्छिरोगताम्॥४॥ मांसल स्थानों में व्रीहिमुखनामक शस्त्रसे व्रीहिमात्र शस्त्र प्रविष्ट विध्येद्धस्तशिरां बाहावनाकुश्चितकूपरे। करना चाहिये । तथा हधियोंके ऊपर कुठारिकासे अर्द्ध ब्रीहिमात्र षया सुखोपविष्टस्य मुष्टिमङ्गुष्टगर्भिणीम् ॥५॥ व्यध करना चाहिये ॥ ११॥