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धिकारः
भाषाटीकोपेतः।
(१०)
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पापरोग,राक्षसदोष तथा ग्रहदोष नष्ट होते हैं । यह "कल्याणक" जटामांसी, छोटी हर्र, जटामांसी, नील, काँचके बीज, वच, घृत सन्तान उत्पन्न करने में तथा वाजीकरणमें उत्तम है। त्रायमाण, अरणी, शतावरी, भटेउर, कुटकी, गुर्च, बाराहीद्विगुण जल तथा चतुर्गुण दूध मिलाकर सिद्ध करनेसे यही घृत कन्द, सौंफ, सोवाके बीज, गुग्गुलु अथवा लाक्षा, शतावरी, “क्षीरकल्याणक " कहा जाता है ॥ २१-२८॥ | ब्राह्मी, राना, गन्धरास्ना, मालकांगनी, विछुआ तथा शालप
णीका कल्क और कल्कसे चतुर्गुण घी और घीसे चतुर्गुण जल महाकल्याणकं घृतम्। .
मिलाकर सिद्ध किया यह घृत चातुर्थिक ज्वर, उन्माद, प्रहएभ्य एव स्थिरादीनि जले पक्त्वैकविंशतिम्। दोष, ब अपस्मारको नष्ट करता तथा मेधा, बुद्धि और बालरसे तस्मिन्पचेत्सर्पिष्टिक्षीरचतुर्गुणम् ॥ २९ ॥ । कोंके शरीरको बढ़ाता है ॥ ३४-३७॥ वीराद्विमाषकाकोलीस्वयंगुप्तर्षभर्द्धिभिः।
हिंग्वायं घृतम् । मेदया च समैः कल्कैस्तत्स्यात्कल्याणकं महत् ॥ | हिंगुसौवर्चलव्योपैपिलांशेर्पताढकम् । ब्रहणीयं विशेषेण सन्निपातहरं परम् ।। ३०॥ |
चतुर्गुणे गवां मूत्रे सिद्धमुन्मादनाशनम् ॥ ३८ ॥ पूर्वोक्त विशाला आदि २८ औषधियोंसे पहिलेकी ७ अलग | कर शालपर्णी आदि २१ औषधियोंका काथ, घृतसे चतर्गण| होग, काला बमक, त्रिकटु प्रत्येक ८ तोला, घी ६ सेर तथा चतुर्गुण एकबार व्याई गायका दूध और घृतसे चतुर्थाश | ३२ तोला, गोमूत्र २५ सेर ४८ तो० मिला सिद्ध कर सेवन शतावर, दोनों उडद, काकोली, कौंच, ऋषभक ऋदि. मेदाका| करनसे उन्माद रोग नष्ट होता है ॥ ३८ ॥ कल्क छोड़कर घी पकाना चाहिये। यह “ महाकल्याणक" घृत
लशुनाचं घृतम् । विशेषकर ब्रहणीय तथा सनिपातको नष्ट करता है ॥२९॥३०॥
लशुनस्याविनष्टस्य तुलाधैं निस्तुषीकृतम् । चैतसं वृतम् ।
तदर्ध दशमूल्यास्तु द्वथाढकेऽपां विपाचयेत् ॥३९॥ पञ्चमूल्यावकाश्मयौँ रात्रैरण्डात्रवृद्धला। पादशेषे घृतप्रस्थं लशुनस्य रसं तथा । मूर्वा शतावरी चेति काथ्यैर्द्विपलिकैरिमैः ॥३१॥ कोलमूलकवृक्षाम्लमातुलुङ्गाकै रसैः ॥ ४० ॥ कल्याणकस्य चाङ्गेन तद् घृतं चैतसं स्मृतम् । दाडिमाम्बुसुरामस्तुकालिकाम्लैस्तदर्धिकः। सर्वचतोविकाराणां शमनं परमं मतम् ॥ ३२॥ साधयेत्रिफलादारुलवणव्योषदीप्यकैः ॥४१॥ घृतप्रस्थोऽत्र पक्तव्यः काथो द्रोणाम्भसा घृतात् ।।
यमानीचव्यहिंग्वस्लवेतसैश्च पलार्धिकैः। चतुर्गुणोऽत्र सम्पाद्यः कल्कः कल्याणके रितः।।
सिद्धमेतत्पिबेच्छूलगुल्माशोंजठरापहम् ॥ ४२ ॥
बध्नपाण्ड्वामयप्लीहयोनिदोषक्रिमिज्वरान् । काश्मरीको छोड़कर शेष दोनों पञ्चमूल, रासन, एरण्डकी
वातश्लेष्मामयांश्चान्यानुन्मादांश्चापकर्षति ॥ ४३ ॥ छाल, निसाथ, खरेटी, मूर्वा, शतावरी प्रत्येक ८ तोला १ द्रोण जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर १ लहसुन छिला हुआ २॥ सेर, दशमूल १। सेर, जल २ प्रस्थ घी तथा कल्याणक घृतमें कही ओषधियोंका कल्क छोड़कर आढक ( यहां “द्विगुणं तद् द्रवायोः" से १२सेर६४ तोला) में पकाना चाहिये । यह घृत समस्त मनोविकारजन्य रोगोंको शान्त मिलाकर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर करने में श्रेष्ठ है ॥ ३१-३३॥
क्वाथमें , प्रस्थ घृत, लशुनका रस १ प्रस्थ, बेर, मूली, बिजौरा
निम्बू, कोकम, अदरखका, रस, अनारका रस, शराब, दहीका महापैशाचिकं घृतम् ।
तोड़, काजी प्रत्येक ६४ तोला, त्रिफला, देवदारु, लवण, जटिला पूतना केशी चारटी मर्कटी वचा। |त्रिकटु, अजवाइन, अजमोद, चव्य, हींग, अम्लवेत, त्रायमाणा जया वीरा चोरकः कटुरोहिणी ॥३४॥ प्रत्येक २ तोलाका कल्क मिलाकर सिद्ध किया गया वयस्था शूकरी छत्रा सातिच्छत्रा पलङ्कषा। घृत पानसे, शूल, गुल्म, अर्श, उदररोग, बद, पाण्डुरोग, महापुरुषदन्ता च वयस्था नाकुलीद्वयम् ॥ ३५॥ | प्लीहा, योनिदोष, क्रिमिरोग, ज्वर, वातकफके अन्य रोग तथा
उन्मादको नष्ट करता है । ३९-४३ ॥ कटुम्भरा वृश्चिकाली स्थिरा चैव च तैघृतम्। । सिद्धं चातुर्थकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् ।। ३६॥ आगन्तुकोन्मादचिकित्सा। महापैशाचिकं नाम घृतमेतद्यथामृतम् ।
सर्पिःपानादिरागन्तोर्मन्त्रादिश्चेष्यते विधिः । मेधाबुद्धिस्मृतिकरं बालानां चाङ्गवर्धनम् ॥ ३७॥ पूजाबल्युपहारेष्टिहोममन्त्राजनादिमिः ॥४४॥