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विकारः]
भाषाटीकोपेतः।
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और भारजीका क्वाथ घीसे चतुर्गुण, दूध समान तथा दही चतु-1 लहसुनका स्वरस, पञ्चमूलका क्वाथ, शराब, काजी, दहीका र्गुण मिलाकर, सिद्ध किया गया घृत गुल्म, उदर, अरुचि, | तोड़ तथा मूलीका स्वरस प्रत्येक घीके समान तथा घीसे चतुर्थाश भगन्दर, अग्निमांद्य, कास, ज्वर, क्षय, शिरोरोग, ग्रहणीरोग | त्रिकटु, अनारदाना, इमली, अजवायन, चव्य, सेंधानमक, हींग, तथा कफ, व वातजन्यरोगोंको शान्त करता है । इसे अम्लवेत, जीरा तथा अजवायन प्रत्येक समान भागका कल्क "भाषिट्पल घृत" कहते हैं ॥ ७४ ॥ ७५॥
छोड़कर सिद्ध किया घृत गुल्म, ग्रहणी, अर्श, श्वास, उन्माद,
क्षय, घर, कास, अपस्मार, मन्दाग्नि, प्लीहा, शूल और वायुको क्षीरषदपलकं घृतम् ।
नष्ट करता है॥ ८२-८४ ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। पलिकैः सयवक्षारैः सर्पिष्प्रस्थं विपाचयेत् ।। ७६॥
दन्तीहरीतकी। क्षीरप्रस्थेन तत्सर्पिर्हन्ति गुल्मं कफात्मकम् । जलद्रोणे विपक्तव्या विंशतिः पञ्च चाभयाः। ग्रहणीपाण्डुरोगन्नं प्लीहकासज्वरापहम् ॥ ७७ ॥ । दन्त्याः पलानि तावन्ति चित्रकस्य तथैव च ।।८५ छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, सोंठ तथा|
तेनाष्टभागशेषेण पचेद्दन्तीसमं गुडम् । यवाखार प्रत्येक एक पल, घी २ प्रस्थ, दूध २ प्रस्थ, जल ६
ताश्चाभयानिवृच्चूर्णात्तैलाचापि चतुष्पलम् ॥८६॥ 'प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये । यह घी कफात्मक गुल्म, पलमेकं कणाशुण्ठयोः सिद्धे लेहे च शीतले । ग्रहणी, पाण्डुरोग, प्लीहा, कास और ज्वरको नष्ट करता नौद्रं तैलसमं दद्याचातुर्जातपलं तथा ।। ८७ ॥ है॥ ७६ ॥ ७७ ॥
ततो लेहपलं लीढ्वा जग्ध्वा चैकां हरीतकीम् । भल्लातकघृतम् ।
सुखं विरिच्यते स्निग्धो दोषप्रस्थमनामयः ॥८८॥ भल्लातकानां द्विपलं पञ्चमूलं पलोन्मितम् । प्लीहश्वयथुगुल्मार्थीहृत्पाण्डुग्रहणीगदाः।। साध्यं विदारीगन्धाढयमापोथ्य सलिलाढके।।७८॥
शाम्यन्त्युत्क्लेशविषमज्वरकुष्ठान्यरोचकाः ८९ ॥ पादावशेषे पते च पिप्पली नागरं वचाम ।
बड़ी हर. २५, दन्ती १। सेर, चीतकी जड़ १। सेर, जल विडङ्गं सैन्धवं हिलगु यावशूकं बिडं शटीम् ॥७९॥ द्रोण (द्रवद्वैगुण्यात् २५ सेर ९ छ. ३ तो०) में पकाना चित्रकं मधुकं रास्नां पिष्ट्वा कर्षसमान्भिषक। चाहिये, अष्टमांश शेष रहनेपर उतार छानकर दन्तीके बराबर प्रस्थं च पयसो दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत रा|गुड़ तथा पहिलेकी हरें मिलाना चाहिये तथा निसोथ १६ तोला
और तिलतैल १६ तोला, छोटी पीपल २ तोला, तथा सोंठ एतद्भल्लातकं नाम कफगुल्महरं परम् ।
२ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । अवलेह सिद्ध हो जानेपर. प्लीहपाण्ड्वामयश्वासग्रहणीकासगुल्मनुत् ॥ ८१॥ उतार ठण्डाकर तेलके समान शहद तथा दालचीनी, तेजपात, भिलावा ८ तोला, लघुपश्चमूल प्रत्येक ४ तोला सबको छोटी इलायची, व नागकेशरका मिलित चूर्ण ४ तोला छोड़ना दुरकुचाकर एक आढ़क जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थीश शेष चाहिये। इसमेंसे ४ तोला, अवलेह चाटना और एक हरै खाना रहनेपर उतार छानकर छोटी पीपल, सोंठ, वच, वायविडंग, चाहिये, इससे स्निग्ध पुरुष सुखपूर्वक १ प्रस्थ दोषोंको विरेचनसे सेंधानमक, हींग, यवाखार, विड़नमक, कचूर, चीतकी जड़, निकालता है और प्लीहा, सूजन, गुल्म, अर्श, हृद्रोग, पाण्डुरोग, मौरेठी, तथा रासन प्रत्येक एक तोला पीसकर छोड़ना चाहिये ग्रहणीरोग, मिचलाई, विषमज्वर, कुष्ठ और अरोचक रोग नष्ट तथा घी १२८ तोला और दूध १२८ तोला छोड़कर पकाना होते हैं ॥ ८५-८९ ॥ चाहिये । यइ "भल्लातक घृत" कफज गुल्म, प्लीहा, पाण्डुरोग, श्वास, ग्रहणी, कास और गुल्मको नष्ट करता है ॥७८-८१॥
वृश्चीराधरिष्टः।
वृश्वीरमुरुबूकं च वर्षाढू बृहतीद्वयम् । रसोनायं घृतम् ।
चित्रकं च जलद्रोणे पचेत्पादावशेषितम् ॥ ९॥ रसोनस्वरसे सपिः पञ्चमूलरसान्वितम् ।
मागधीचित्रकक्षौद्रलिप्तकुम्भे निधापयेत् । सुरारनालदध्यमलमूलकस्वरसैः सह ॥ ८२॥ मधुनः प्रस्थमावाप्य पथ्याचूर्णार्धसंयुतम् ॥ ९१॥ व्योषदाडिमवृक्षाम्लयमानीचव्यसैन्धवैः।
वुषोषितं दशाहं च जीर्णभक्तः पिबेन्नरः। हिङ्ग्वम्लवेतसाजाजीदीप्यकैश्च पलान्वितैः ॥८॥
अरिष्टोऽयं जयेद् गुल्ममविपाकं सुदुस्तरम् ।। ९२॥ सिद्धं गुल्मग्रहण्यर्शःश्वासोन्मादक्षयज्वरान् । । पुनर्नवा, एरण्डकी छाल, सफेद पुनर्नवा, दोनों कटेरी, चीतकी कासाऽपस्मारमन्दामिप्लीहशूलानिलाजयेत् ॥८४॥ जड़ सब मिला , तुला, १ द्रोण जल ( द्रवद्वैगुण्यात् २५० सेर