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चक्रदत्तः।
आश्च्योतनाद्य
अथाश्च्योतनाद्यधिकारः।
अञ्जनं लेखनं तत्र कषायाम्लपटूषणैः । रोपणं तिक्तकैर्द्रव्यैः स्वादुशतैः प्रसादनम् ॥९॥
वमन, विरेचनादिसे शुद्ध पुरुषके केवल नेत्रमात्रमें दोषके रह आश्च्योतनविधिः ।
जाने तथा सूजन, बेचैनी, खुजली, पिच्छिलाहट तथा किरकिरी,
आँसू और लालिमा आदिकी कमीरूप पक्क लक्षण प्रकट होजानेपर सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्च्योतनं हितम् ।।
और नेत्रमल (चीपर) कड़ा निकलनेपर अंजन लगाना चाहिये । रुकतोदकण्ड्घ र्षानुदाहरागनिबहेणम् ।। १॥ अन (१) लेखन (खुरचनेवाला) (२) रोपण (घाव भरनेवाला) उष्णं वात कफे कोष्णं तच्छीतं रक्तपित्तयोः। तथा (३) दृष्टिप्रसादन (नेत्रको बल देनेवाला) इस प्रकार ३ प्रकारका निवातस्थस्य वामेन पाणिनोन्मील्य लोचनम् ॥२॥ होता है ) लेखन अञ्जन कषैले, खट्टे, नमकीन व कटु पदाथास शुक्त्या प्रलम्बयान्येन पिचुवा कनीनिके। तथा रोपण अअन तिक्त पदार्थोंसे और प्रसादन अंजन मधुर दश द्वादश वा बिन्दून्द्वयगुलादवसेचयेत् ।। ३।। द्रव्योंसे बनाना चाहिये ॥ ७-९ ॥ ततः प्रमृज्य मृदुना चैलेन कफवातयोः।। अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेन स्वेदयेन्मृदु ॥ ४॥
शलाका। समस्त नेत्ररोगोंके लिये पहिले आश्च्चोतन ही हितकर होता
दशाङ्गुला तनुर्मध्ये शलाका मुकुलानना । है । वह सुई चुभानेके समान पीड़ा, खुजली, किरकिरी, आँसू, प्रशस्ता लेखने ताम्री रोपणे काललोहजा ॥१०॥ जलन और लालिमाको नष्ट करता है । वह आश्च्योतन वायुम अङ्गुली च सुवर्णोत्था रुप्यजा च प्रसादने । गरम, कफमें कुछ कम गरम तथा रक्तपित्तमें शीत ही छोड़ना
शलाका १० अङ्गुलकी मध्यमें पतली तथा कलीके समान चाहिये । इस प्रकार तैयार किया हुआ आश्च्योतन रोगीको मुखवाली बनानी चाहिये । तथा लेखन अञ्जनके लिये ताम्रकी वातरहित स्थानमें लिटा वाम हाथसे आँख खोल दक्षिण हाथसे शलाका, रोपणके लिये कृष्णलोहकी तथा प्रसादनके लिये लम्बी शुक्ति या फोहे द्वारा दश बारह बिन्दु२ अङ्गुलकी दूरीसे अगुली अथवा सोने या चांदीकी शलाका काममें लानी वैद्यको छोड़ना चाहिये । उसके अनन्तर मुलायम कपड़ेसे पोंछ-चाहिये ॥१०॥कर कफवातके लिये दूसरे गरम जलमें डूबे हुए कपड़ेसे मृदु | स्वेदन करना चाहिये ॥१-४॥
अञ्जनकल्पना। अत्युष्णादिदोषाः।
पिण्डो रसक्रिया चूर्ण त्रिधैवाजनकल्पना ।। ११ ।।
गुरी मध्ये लघौ दोषे तां क्रमेण प्रयोजयेत् । अत्युष्णतीक्ष्णं रुपागहानाशायाक्षिसेचनम् । ।
अथानुन्मीलयम् दृष्टिमन्तः सञ्चारयेच्छनैः ॥१२॥ अतिशतिं तु कुरुते निस्तोदस्तम्भवेदनाः ॥ ५॥
आजिते वर्त्मनी किञ्चिच्चालयेच्चैवमजनम् । कषायवर्त्मतां घर्ष कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु ।।
अपेतोषधसंरम्भं निर्वृतं नयनं यदा ॥ १३ ॥ विकारवृद्धिमत्यल्पं संरम्भमपरिसुतम् ॥ ६॥
व्याधिदोषर्तुयोग्याभिराद्भिः प्रक्षालयेत्तदा। अधिक गरम तथा तीक्ष्ण आश्च्योतन पीड़ा, लालिमा तथा
दक्षिणांगुष्ठकेनाक्षि ततो वामं सवाससा ।। १४ ॥ दृष्टिनाशतक कर देता है। तथा बहुत ठण्ढाआश्च्योतन सूई चुभा नेके समान पीड़ा व जकड़ाहट उत्पन्न कर देता है। तथा अधिक
ऊर्ध्ववर्त्मनि संगृह्य शोध्यं वामेन चेतरत् । आश्च्योतन विन्नियोंकी जकड़ाहट, किरकिरी तथा कठिनतासे निशि स्वप्नेन मध्यान्हे पानान्नोष्णगभस्तिभिः।।१५।। खुलना आदि दोष करता है । तथा अति न्यून आश्च्योतन रोगको आक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्धितोत्पीडितद्रुताः। बढाता तथा यदि वस्त्रसे साफ न किया जाय, तो शोथ तथा लालिमा
प्रातः सायं च तच्छान्त्यै व्यभ्रेऽऽतोऽञ्जयेत्सदा।। उत्पन्न कर देता है॥५॥६॥
कण्डूजाडयेऽजनं तीक्ष्णं धूमं वा योजयेत्पुनः । __ अञ्जनम् ।
तीक्ष्णाजनाभितप्ते तु तूर्ण प्रत्यञ्जनं हितम् ॥१७॥ अथाजनं शुद्धतनोनॆत्रमात्राश्रये मले।
(१) गोली. (२) रसक्रिया अथवा (३) चूर्ण प्रक्रियाभेदसे ३ पक्कलिङ्केऽल्पशोथार्तिकण्डूपैच्छिल्यलक्षिते ॥७॥ प्रकारका अञ्जन बनाया जा सकता है । उन्हें क्रमशः गुरु, मध्य मन्दघर्षासुरागेऽक्षिण प्रयोज्यं घनदूषिके। और लघु दोषों में काममें लाना चाहिये । तथा अञ्जन विनियों में लेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनमिति त्रिधा ॥ ८॥ लगाकर अन्दर ही अन्दर धीरे धीरे चलाना चाहिये। फि